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भारतीय दार्शनिक चिन्तन में निहित अनेकान्त
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अनेकान्तवाद को मुख्यत: जैनदर्शन का पर्याय माना जाता है। यह कथन सत्य भी है, क्योंकि अन्य दार्शनिकों ने उसका खण्डन मुख्यत: उसके इसी सिद्धान्त के आधार पर किया है। दूसरी ओर यह भी सत्य है कि अनेकान्तवाद का विकास और तार्किक आधारों पर उसकी पुष्टि जैन दार्शनिकों ने की है। अत: अनेकान्तवाद को जैन दर्शन का पर्याय मानना समुचित भी है; किन्तु इसका यह भी अर्थ नहीं है कि अन्य भारतीय दर्शनों में इसका पूर्णतः अभाव है । सत्ता सम्बन्ध में अनेकान्त एक अनुभूत सत्य है और अनुभूत सत्य को स्वीकार करना ही होता है। विवाद या मतवैभिन्य अनुभूति के आधार पर नहीं, उसकी अभिव्यक्ति के आधार पर होता है। अभिव्यक्ति के लिए भाषा का सहारा लेना होता है, किन्तु भाषायी अभिव्यक्ति अपूर्णसीमित और सापेक्ष होती है अतः उसमें मतभेद होता है और उन मतभेदों की सापेक्षिक सत्यता को स्वीकार करने या उन परस्पर विरोधी कथनों के बीच समन्वय लाने के प्रयास में ही अनेकान्तवाद का जन्म होता है। वस्तुत: अनेकान्तवाद या अनेकान्तिक दृष्टिकोण का विकास निम्न तीन आधारों पर होता है
१. बह-आयामी वस्तुतत्त्व के सम्बन्ध में ऐकान्तिक विचारों या कथनों का निषेधा
२. भिन्न-भिन्न अपेक्षाओं के आधार पर बहु-आयामी वस्तुतत्त्व के सम्बन्ध में प्रस्तुत विरोधी कथनों की सापेक्षिक सत्यता की स्वीकृति ।
३. परस्पर विरोधी प्रतीत होने वाली विचार-धाराओं को समन्वित करने का प्रयास। वेदों में प्रस्तुत अनेकान्त दृष्टि
प्रस्तुत आलेख में हमारा प्रयोजन उक्त अवधारणाओं के आधार पर जैनेतर भारतीय चिन्तन में अनैकान्तिक दृष्टिकोण कहाँ-कहाँ किस रूप में उल्लेखित है इसका दिग्दर्शन कराना है।
भारतीय साहित्य में वेद प्राचीनतम है। उनमें भी ऋग्वेद सबसे प्राचीन माना जाता है। ऋग्वेद न केवल परमतत्त्व के सत् और असत् पक्षों को स्वीकार करता है अपितु इनके मध्य समन्वय भी करता है। ऋग्वेद के नासदीयसूक्त (१०/१२९/१) में परमतत्त्व के सत् या असत् होने के सम्बन्ध में न केवल जिज्ञासा प्रस्तुत की गई
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