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ওও के अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं है। वस्तुत: डॉ० सुदीपजी को अर्धमागधी के नाम से ही घृणा है, उन्हें इस नाम को स्वीकार करने पर अपने साम्प्रदायिक अभिनिवेश पर चोट पहुंचती नज़र आती है। उनका इसके पीछे अर्धमागधी आगमों और उनके मानने वाले के प्रति वैमनस्य प्रदर्शित करने के अलावा क्या उद्देश्य है, मैं नहीं जानता?
उन्होंने हाथीगुम्फा अभिलेख को प्रादर्श मानकर उससे ओड्मागधी के कुछ लक्षण भी निर्धारित किये हैं, आएं देखें उनमें कितनी सत्यता है और वे अर्धमागधी के लक्षणों से किस अर्थ में भिन्न हैं। वे लिखते हैं कि “इस अभिलेख में सर्वत्र पद के प्रारम्भ में 'ण' वर्ण का प्रयोग हुआ है, तथा अन्त में 'न' वर्ण आया है, जबकि अर्धमागधी में पद के प्रारम्भ में 'न' वर्ण आता है तथा अन्त में 'ण' वर्ण आता है। वस्तुत: यह प्राचीन शौरसेनी जो कि दिगम्बर जैनागमों की मूलभाषा से प्रभावित मागधी का विशिष्ट रूप है। इससे दन्त्य सकार की प्रकृति, 'क' वर्ण का 'ग' वर्ण आदेश, 'थ' के स्थान पर 'ध' का प्रयोग एवं अकारान्त पु० प्रथमा एक वचनान्त रूपों में ओकारान्त की प्रवृत्ति विशुद्ध शौरसेनी का ही अमिट एवं मौलिक प्रभाव है।" ।
- प्राकृत विद्या, अप्रैल-जून १९९८, पृ० १४. प्रथमत: उनका यह कहना सर्वथा असत्य और अप्रामाणिक है कि इस अभिलेख में पद के प्रारम्भ में 'ण' वर्ण का प्रयोग हुआ है तथा पद के अन्त में 'न' वर्ण आया है। विद्वत् जनों के तात्कालिक सन्दर्भ के लिए हम नीचे हाथीगुम्फा खारवेल का अभिलेख उद्धृत कर रहे हैं --
Language : Prakrit resembling pali Script : Brahmi of about the end of the 1st century B.C.
Text
१. नमो अरहंतानं (1) नमो सव-सिधानं (II ) ऐरेण महाराजेन महामेघवाहनेन चेति-राज-व (॥ ) स-वधनेन पसथ-सुभ-लखनेन चतुरंतलुठ (ण)-गुण-उपितेन कलिंगाधिपतिना सिरि-खारवेलेन
२. (प) दरस-वसानि सीरि- (कडार)- सरीर-वता कीडिता कुमार- कीडिका (II) ततो लेख-रूप गणना-ववहार-विधि-विसारदेव सव-विजावदातेन नव-वसानि योवरज (प) सासितं (।। ) संपुंण- चतुवीसिति- वसो तदानि वधमानसेसयोवेनाभिविजयो ततिये
३. कलिंग राज वसे पुरिस-युगे महाराजाभिसेचनं पापुनाति (।) अभिसितमतो च पघमे वसे वात-विहत गोपुर-पाकार-निवेसनं पटिसंखारयति कलिंगनगरिखिबी (र) (1) सितल-तडाग-पाडियो च बंधापयति सवूयान-प (टि) संथपनं च
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