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ओड्मागधी प्राकृत : एक नया शगुफा
जब अभिलेखीय प्राकृत को शौरसेनी प्राकृत सिद्ध करने का प्रयत्न सफल नहीं हुआ, तो डॉ० सुदीप जी ने अभिलेखीय प्राकृत को ओड्मागधी प्राकृत बताने का एक नया शगुफा छोड़ा है। इस सम्बन्ध में उन्होंने प्राकृत विद्या, अप्रैल-जून १९९८ में 'ओड्मागधी प्राकृत : एक परिचयात्मक अनुशीलन' नामक लेख लिखा । आश्चर्य यह है कि प्राकृत भाषा के ढ़ाई हजार वर्ष के सुदीर्घ इतिहास में आज तक एक भी विद्वान् ऐसा नहीं हुआ, जिसने ओड्मागधी प्राकृत का कही संकेत भी किया हो । विभिन्न प्राकृतों के विशिष्ट लक्षणों का निर्देश करने के लिए अनेक प्राकृत व्याकरण लिखे गये, किन्तु किसी ने भी ओड्मागधी प्राकृत का कहीं कोई नामोल्लेख भी नहीं किया। यह डॉ० सुदीप जी की अनोखी सूझ है कि उन्होंने एक ऐसी प्राकृत का निर्देश किया जिसका बड़े-बड़े प्राकृत भाषाविदों, इतिहासकारों और वैयाकरणों को भी अता-पता नहीं था। निश्चित ही ऐसी अद्भुत खोज के लिए वे विद्वत् वर्ग की बधाई के पात्र होते । किन्तु इसके लिए हमें यह तो निश्चित करना होगा कि क्या यह एक तथ्यपूर्ण खोज है या मात्र एक शगुफा ।
डॉ॰ सुदीपजी ने ओड्मागधी प्राकृत की पुष्टि के लिए भरतमुनि के नाट्यशास्त्र को प्रमाण रूप में प्रस्तुत किया है। यह सत्य है कि भरतमुनि ने अपने नाट्यशास्त्र में नाट्य की चार प्रकार की वृत्तियों – (१) आवन्ती, (२) दाक्षिणत्या, (३) पञ्चाली, और (४) ओड्मागधी का निर्देश किया है, मात्र यही नहीं इन वृत्तियों (नाट्यशैलियों) की चर्चा करते हुए उन्होंने इनके विस्तार क्षेत्र की भी चर्चा की है और ओड्मागधी वृत्ति का क्षेत्र सम्पूर्ण पूर्वी भारत बताया है, जो वर्तमान में पश्चिम में प्रयाग से लेकर पूर्व में ब्रह्मदेश तक और उत्तर में नेपाल से लेकर दक्षिण में बंगाल और दक्षिणी उड़ीसा के समुद्रतट तक बताया है। लेकिन यहाँ जिस ओड्मागधी वृत्ति की चर्चा की गयी है, वह एक नाट्य-विधा या नाट्य शैली है। यह ठीक है कि वृत्ति या शैली का सम्बन्ध उस क्षेत्र की वेशभूषा, बोलचाल, आचार-पद्धति एवं वाणिज्य-व्यवसाय आदि से होता है, वह एक संस्कृति को प्रस्तुत करती है, जिसमें उपरोक्त तथ्य भी सन्निहित होते हैं। फिर भी ओड्मागधी एक नाट्यशैली है न कि एक भाषा । भस्तमुनि ने कहीं भी उसका उल्लेख एक भाषा के रूप में नहीं किया है। यह डॉ० सुदीप की भ्रामक कल्पना है कि एक नाट्यशैली को वे एक भाषा सिद्ध कर रहे हैं। आज जैसे ओडीसी एक
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