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________________ ७४ ३. पाश्चात्य और भारतीय विद्वानों ने अभिलेखों के जो भी पाठ निर्धारित किये हैं वे सुविचारित और प्रामाणिक हैं, उन्हें अप्रामाणिक कहने के पूर्व उनका व्यापक तुलनात्मक एवं तटस्थ अध्ययन होना आवश्यक है। दूसरों को 'अंगूठा छाप' कहने के पहले हमें अपनी यथार्थ स्थिति को जान लेना चाहिए। जो बात पं० ओझा जी ने खरोष्ठी लिपि के लिपिपत्र ६७ सम्बन्ध में कही हो, उसे उनकी कृति का अध्ययन किये बिना, बिना प्रमाण के ब्राह्मी के सम्बन्ध में कह देना सुदीप जी के अज्ञान, अप्रामाणिकता. और पल्लवग्राही पाण्डित्य को ही प्रकट करता है। इस प्रकार के अपरिपक्व और अप्रामाणिक लेखन से 'अंगूठाछाप' कौन सिद्ध होगा, यह विचार कर लेना चाहिए। प्राकृत में 'न' का प्रयोग प्राचीन है और 'ण' का प्रयोग परवर्ती है - इसकी सिद्धि तो अभिलेखों विशेष रूप से शौरसेन प्रदेश एवं मथुरा के प्राचीन अभिलेखों में प्रारम्भ में 'ण' की अनुपस्थिति और फिर उसके बाद कालक्रम में उसके प्रतिशत में हुई वृद्धि आदि से ही हो जाती है जिसकी प्रामाणिक चर्चा पं० ओझा जी की पुस्तक के आधार पर हम कर चुके हैं। अत: प्राकृत में 'न' का अथवा विकल्प से न और ण का प्रयोग प्राचीन है और 'नो णः सर्वत्र' का सिद्धान्त और उसको मान्य करने वाली प्राकृतें परवर्ती हैं, यह एक सुविचारित तथ्यपूर्ण निर्णय है। रही बात विवाद उठाने की और सदाशयता की, तो सुदीप जी स्वयं ही बतायें कि शौरसेनी को प्राचीन बताने की धुन में 'अर्धमागधी आगम साहित्य पर नकल करके कृत्रिम रूप से पाँचवीं शती में शौरसेनी आगमों से निर्मित 'जैसे मिथ्या आरोप किसने लगाये, विवाद किसने प्रारम्भ किया और सदाशयता का अभाव किसमें है। क्या जो व्यक्ति व्यंग में अपनी पत्रिका के सम्पादकीय में विद्वानों को अंगूठाछाप बताये और उनकी तुलना बिच्छु से करे, उसे सदाशयी माना जायेगा, स्वयं ही विचारणीय है। वस्तुत: ब्राह्मी लिपि में 'न' और 'ण' के लिए एक ही आकृति होती है - यह कह कर भाई सुदीप जी ने शौरसेनी की प्राचीनता को सिद्ध करने के लिए पं० ओझा जी के नाम पर एक छक्का मारने का प्रयास किया, उन्हें क्या पता था कि 'कैच' हो जायेगा और 'आउट' होना पड़ेगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001688
Book TitleSagar Jain Vidya Bharti Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2002
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size11 MB
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