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शौरसेनी प्राकृत के सम्बन्ध में प्रो० भोलाशंकर
व्यास की स्थापनाओं की समीक्षा
'प्राकृतविद्या के सम्पादक डॉ० सुदीप जैन ने प्रो० भोलाशंकर व्यास के व्याख्यान में उभरकर आये कुछ विचार-बिन्दुओं को 'प्राकृत-विद्या', जनवरी-मार्च १९९७ के अपने सम्पादकीय में प्रस्तुत किया है। हम यहाँ सर्वप्रथम प्रो० भोलाशंकर व्यास के नाम से प्रस्तुत उन विचार-बिन्दुओं को अविकल रूप से देकर फिर उनकी समीक्षा करेंगे। डॉ० सुदीप जैन लिखते हैं कि
"प्राकृत भाषा इस देश की मूल भाषा रही है और प्राकृत के विविध रूपों में भी शौरसेनी प्राकृत ही मूल प्राकृत थी, इसकी समवर्ती मागधी प्राकृत इसी का क्षेत्रीयसंस्करण' थी। शौरसेनी प्राकृत मध्य देश में बोली जाती थी तथा सम्पूर्ण बृहत्तर भारत में इसके माध्यम से साहित्य-सृजन होता रहा है इसीलिए शौरसेनी प्राकृत ही अन्य सभी प्राकृतों एवं लोकभाषाओं की जननी रही है। पहिले मूल दो ही प्राकृतें थी-शौरसेनी और मागधी। परवर्ती महाराष्ट्री प्राकृत पूरी तरह से शौरसेनी का ही परिवर्तित रूप है। 'महाराष्ट्री' का कोई स्वतन्त्र अस्तित्व मैं नहीं मानता। यही नहीं, 'अर्धमागधी' प्राकृत, जो कि मात्र श्वेताम्बर जैन आगम-ग्रन्थों में ही मिलती है, का आधार भी शौरसेनी प्राकृत ही है। इसके बाद परिशुद्ध शौरसेनी भाषा 'कसायपाहुडसुत्त', 'छक्खण्डागमसुत्त', कुन्दकुन्द-साहित्य एवं 'धवला' - 'जयधवला' आदि में प्रयुक्त मिलती है। दिगम्बर जैन साहित्य की शौरसेनी प्राकृत भाषा अकृत्रिम, स्वाभाविक एवं वास्तविक जनभाषा है। यही नहीं, बौद्ध ग्रन्थों की भाषा मूलतः शौरसेनी प्राकृत ही है, जिसे कृत्रिम रूप से संस्कृतनिष्ठ बनाकर पूर्वदेशीय प्रभावों के साथ पालि रूप दिया गया। उसे खींच-तानकर प्राचीन बनाने की कोशिश की गयी है, जिससे उसकी वाक्यरचना में जटिलता आ गयी है। इसी कारण मैं शौरसेनी को ही मूल प्राकृत भाषा मानता हूँ। मागधी भी लगभग इतनी ही प्राचीन है, परन्तु वस्तुतः उसमें पूर्वीय उच्चारण-भेद के अतिरिक्त अन्य कोई अन्तर नहीं है, मूलतः वह भी शौरसेनी ही है।" -प्रो० भोलाशंकर व्यास (प्राकृतविद्या, जनवरी-मार्च १९९७, पृ० १७)
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