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________________ ४२ की स्थापना की दृष्टि से सिद्धसेन दिवाकर के 'सन्मतितर्क' और उसकी टीका में अथवा 'नयचक्र' और सिंहसूरि की उसकी टीका में अथवा 'विशेषावश्यकभाष्य' और उसकी चूर्णी में अथवा 'बृहत्कल्प', 'व्यवहार' और 'निशीथ' के भाष्य एवं चूर्णियों में जैन आचार की गूढ़तम समस्याओं के सन्दर्भ में जो गम्भीर विवेचन है, वह क्या 'धवला ' में उपलब्ध है ? एक सामान्यजन को तो ऐसे कथनों से भ्रमित किया जा सकता है; किन्तु उन विद्वानों को जिन्होंने दोनों परम्पराओं के ग्रन्थों का तलस्पर्शी अध्ययन किया हो, ऐसे अतिशयोक्तिपूर्ण कथनों से भ्रमित नहीं किया जा सकता है। प्रो० टॉटियाजी ने चाहे यह बात दिगम्बर आचार्यों और जनसाधारण को खुश करने की दृष्टि से कह भी दी हो तो क्या वे अपने इस कथन को अन्तरात्मा से स्वीकार करते हैं? पुनः यह कथन कि 'धवला जैसा कोई ग्रन्थ है ही नहीं' यह भी चिन्त्य है। वैसे तो प्रत्येक ग्रन्थ अपनी विषयवस्तु या शैली आदि की अपेक्षा से अपने आप में विशिष्ट होता है अत: उसकी तुलना किसी अन्य परम्परा के ग्रन्थों से करके उन्हें निकृष्ट ठहरा देना एक निरर्थक प्रयास ही होगा ? यहाँ यह भी ध्यान रखना आवश्यक है कि 'धवला' अपने आप में कोई स्वतन्त्र ग्रन्थ नहीं है वह तो 'षट्खण्डागम' के पाँच खण्डों की टीका है। उसका वैशिष्ट्य केवल कर्म सिद्धान्त की विवेचना की दृष्टि से ही है । यदि श्वेताम्बर ग्रन्थों को एक ओर छोड़ भी दें तो क्या 'धवला' और 'समयसार' में कोई तुलना की जा सकती है? क्या 'समयसार', 'धवला' की अपेक्षा निम्न कोटि का ग्रन्थ है ? दूसरी परम्परा के ग्रन्थों को निम्न कोटि का बताने के लिये इस प्रकार की वाक्यावलियों का प्रयोग उचित नहीं है। क्या टॉटियाजी की दृष्टि में 'भगवतीसूत्र', 'प्रज्ञापना', 'सन्मतितर्क' और उसकी टीका अथवा 'विशेषावश्यकभाष्य', 'धवला' की अपेक्षा निम्न कोटि के ग्रन्थ हैं ? किसी भी ग्रन्थ के सापेक्षित वैशिष्ट्य को स्वीकार करना एक बात है; किन्तु निरपेक्ष रूप से उसे सर्वोपरि घोषित कर देना अनेकान्त के उपासकों के लिये उचित नहीं है। ८. "शौरसेनी पालि भाषा की जननी है- यह मेरा स्पष्ट चिन्तन है। पहले बौद्धों के ग्रन्थ शौरसेनी में थे, उनको जला दिया गया और पालि में लिखा गया । " यद्यपि इस कथन की समीक्षा हम पूर्व लेख में कर चुके हैं, फिर भी स्पष्टता के लिये दो-तीन बातें बताना आवश्यक है। मेरा प्रथम प्रश्न तो यह है कि 'द'कार और 'ण'कार प्रधान शौरसेनी जो दिगम्बर *. देखें इसी ग्रन्थ में प्रकाशित मेरा लेख - जैन आगमों की मूलभाषा अर्धमागधी या शौरसेनी. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001688
Book TitleSagar Jain Vidya Bharti Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2002
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size11 MB
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