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अर्धमागधी आगमों में ये अवधारणाएँ अनुपस्थित हैं। इस सम्बन्ध में मैंने अपने ग्रन्थ 'गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण' और 'जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय' में विस्तार से प्रकाश डाला है। अन्ततोगत्वा यही सिद्ध होता है कि अर्धमागधी भाषा या अर्धमागधी आगम नहीं, अपितु शौरसेनी भाषा ईसा की दूसरी शती के पश्चात् और शौरसेनी आगम ईसा की ५वीं शती के पश्चात् अस्तित्व में आये। अच्छा होगा कि भाई सुदीपजी पहले मागधी और पालि तथा अर्धमागधी और महाराष्ट्री के अन्तर को एवं इनके प्रत्येक के लक्षणों को तथा जैन आगमिक साहित्य के ग्रन्थों के कालक्रम को और जैन इतिहास को तटस्थ दृष्टि से समझ लें और फिर प्रमाणसहित अपनी कलम निर्भीक रूप से चलायें, व्यर्थ की आधारहीन भ्रान्तियाँ खड़ी करके समाज में कटुता उत्पन्न न करें।
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