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विशेषता कहा जाता है। सत्य तो यह है कि अर्धमागधी आगमों का ही शौरसेनी रूपान्तरण हुआ है, न कि शौरसेनी आगमों का अर्धमागधी रूपान्तरण। यह सत्य है कि न केवल अर्धमागधी आगमों पर अपितु शौरसेनी के आगमतुल्य कुन्दकुन्द आदि के ग्रन्थों पर भी महाराष्ट्री की ‘य्' श्रुति का स्पष्ट प्रभाव है जिसे हम पूर्व में सिद्ध कर चुके हैं। क्या पन्द्रह सौ वर्षों से पूर्व अर्धमागधी भाषा एवं श्वेताम्बर अर्धमागधी आगमों का अस्तित्व ही नहीं था? ।
डॉ० सुदीपजी द्वारा टाँटियाजी के नाम से उद्धृत यह कथन कि '१५०० वर्ष पहले अर्धमागधी भाषा का अस्तित्व ही नहीं था' पूर्णतः भ्रान्त है। आचाराङ्ग, सूत्रकृताङ्ग, ऋषिभाषित जैसे आगमों को पाश्चात्य विद्वानों ने एक स्वर से ई०पू० तीसरी-चौथी शताब्दी या उससे भी पूर्वकाल का माना है। क्या उस समय ये आगम अर्धमागधी भाषा में निबद्ध न होकर शौरसेनी में निबद्ध थे? ज्ञातव्य है कि मध्यवर्ती त् के स्थान पर 'द्' और 'ण'कार की प्रवृत्ति वाली शौरसेनी का जन्म तो उस समय हुआ ही नहीं था अन्यथा अशोक और मथुरा (जो शौरसेनी की जन्मभूमि है) के अभिलेखों में कहीं तो इस शौरसेनी के वैशिष्ट्य वाले शब्दरूप उपलब्ध होने चाहिए थे। क्या शौरसेनी प्राकृत में निबद्ध ऐसा एक भी ग्रन्थ है, जो ई०पू० में लिखा गया हो? सत्य तो यह है कि भास (ईसा की दूसरी शती) के नाटकों के अतिरिक्त ईसा की चौथी-पाँचवीं शताब्दी के पूर्व शौरसेनी में निबद्ध एक भी ग्रन्थ नहीं था। इससे प्रतिकूल मागधी और अर्धमागधी के अभिलेख ई०पू० तीसरी शताब्दी से उपलब्ध हो रहे हैं। पुनः यदि ये लोग जिसे अर्धमागधी कह रहे हैं उसे महाराष्ट्री भी मान लें तो उसके भी ग्रन्थ ईसा की प्राथमिक शताब्दियों के उपलब्ध होते हैं। सातवाहन हाल की गाथासप्तशती महाराष्ट्री प्राकृत का प्राचीन ग्रन्थ है, साथ ही यह माना जाता है कि यह ईसा की प्रथम से तीसरी शती के मध्य तक रचित है। पुनः यह भी एक संकलन ग्रन्थ है जिसमें अनेक ग्रन्थों से गाथाएँ संकलित की गयी हैं। इसका तात्पर्य यह हुआ कि इसके पूर्व भी महाराष्ट्री प्राकृत में ग्रन्थ रचे गये थे। कालिदास के नाटकों जिनमें भी शौरसेनी का प्राचीनतम रूप मिलता है, वे भी ईसा की चतुर्थ शताब्दी के बाद के ही माने जाते हैं। कुन्दकुन्द के ग्रन्थ स्पष्ट रूप से न केवल अर्धमागधी आगमों से अपित परवर्ती 'यू' श्रति प्रधान महाराष्ट्री से भी प्रभावित हैं, किसी भी स्थिति में ईसा की पाँचवीं-छठी शताब्दी के पूर्व के सिद्ध नहीं होते हैं।* षटखण्डागम और कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में गुणस्थान, सप्तभंगी आदि लगभग ५वीं शती में निर्मित अवधारणाओं की उपस्थिति उन्हें श्वेताम्बर आगमों और उमास्वाति के तत्त्वार्थसूत्र (लगभग चतुर्थ शती) से परवर्ती ही सिद्ध करती हैं, क्योंकि
*. देखिए, डॉ० हीरालाल (स्वयं एक दिगम्बर विद्वान्) जैन की 'भारतीय संस्कृति
__ में जैनधर्म का योगदान', भोपाल, १९६२, पृ० ८३
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