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प्रकाशकीय
प्रो० सागरमल जैन, जो जैन धर्म-दर्शन के अन्तर्राष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त विद्वान् हैं, ने जैन - विद्या के विविध पक्षों पर अपनी लेखनी चलायी हैं और उसे अपने गम्भीर चिन्तनमनन एवं प्रामाणिकता के आधार पर नया स्वरूप प्रदान किया है । यही कारण है कि प्रो० जैन के सभी आलेख सार्वकालिक हैं । प्रो० जैन के आलेखों की इसी सार्वकालिकता को दृष्टि में रखते हुए पार्श्वनाथ विद्यापीठ ने सन् १९९३ में उनके आलेखों को सागर जैनविद्या भारती के रूप में प्रकाशित करने की योजना बनायी । इस क्रम में सागर जैन- विद्या भारती, भाग-१ सन् १९९३ में, भाग - २ सन् १९९५ में, भाग - ३ सन् १९९७ में तथा भाग४ सन् २००१ में प्रकाशित हो चुकी हैं। सागर जैन विद्या भारती, भाग-५ उसी योजना की अगली कड़ी के रूप में आप पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करने में अत्यन्त हर्ष का अनुभव हो रहा है । इस अङ्क में सम्मिलित १० आलेखों में से ७ आलेख प्राकृत भाषा विशेषतः अर्धमागधी और शौरसेनी से सम्बन्धित हैं । विगत कई वर्षों से अर्धमागधी और शौरसेनी की प्राचीनता के विषय में चर्चा हो रही है। प्रो० जैन ने प्रामाणिक साक्ष्यों के आधार पर वस्तुस्थिति की समीक्षा की है ।
प्रो० जैन के ये शोध - आलेख जैन धर्म-दर्शन, इतिहास, साहित्य आदि विषयों के विविध आयामों पर सशक्त प्रस्तुतियाँ हैं। आशा है शोध - विद्यार्थियों एवं सुधी पाठकों के लिए ये आलेख उपयोगी सिद्ध होंगे ।
इस पुस्तक की प्रूफ रीडिंग पार्श्वनाथ विद्यापीठ के प्रवक्ता डॉ० शिवप्रसाद ने की है तथा प्रेस सम्बन्धी कार्यों का दायित्व डॉ० विजय कुमार ने निर्वहन किया है, अतः प्रवक्ताद्वय का मैं हृदय से आभारी हूँ । सुन्दर अक्षर-सज्जा के लिए राजेश कम्प्यूटर्स एवं सरिता कम्प्यूटर तथा सत्वर मुद्रण हेतु वर्द्धमान मुद्रणालय को धन्यवाद देता हूँ ।
दिनांक : 07-03-2002
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इन्द्रभूति बरड़ संयुक्त सचिव पार्श्वनाथ विद्यापीठ
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