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१३७ के निवास के अयोग्य हैं। १२० वें द्वार में उसके विपरीत चार प्रकार की सुखशय्या अर्थात् मुनि के निवास के योग्य माने गये हैं।
१२१वें द्वार में तेरह क्रिया स्थानों की, १२२ वें द्वार में श्रुत सामायिक, दर्शन सामायिक, देश समायिक और सर्वसामायिक ऐसी चार प्रकार सामायिक की
और १२३ वें द्वार में अट्ठारह हजार शीलांगों की चर्चा है। पुनः १२४ वें द्वार में सात नयों की चर्चा की गई है जबकि १२५वें द्वार में मुनि के लिये वस्त्र ग्रहण की विधि बतायी गयी है।
१२६वें द्वार में आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा और जीत ऐसे पांच व्यवहारों की चर्चा है।
१२७वें द्वार में निम्न पांच प्रकार के यथाजात का उल्लेख है। (१) चोलपट्ट (२) रजोहरण (३) और्णिक (४) क्षौमिक और (५) मखवस्त्रिका । इन उपकरणों से ही श्रमण का जन्म होता है। अत: इन्हें यथाजात कहा गया है।
१२८वें द्वार में मुनियों के रात्रि जागरण की विधि का विवेचन है। उसमें बताया गया है कि प्रथम प्रहर में आचार्य, गीतार्थ और सभी साधु मिलकर स्वाध्याय करें। दूसरे प्रहर में सभी मुनि और आचार्य सो जायें और गीतार्थ मुनि स्वाध्याय करें। तीसरे प्रहर में आचार्य जागृत होकर स्वाध्याय करें और गीतार्थ मुनि सो जायें। चौथे प्रहर में सभी साधु उठकर स्वाध्याय करें। आचार्य और गीतार्थ सोये रहें क्योंकि उन्हें बाद में प्रवचन आदि कार्य करने होते हैं।
१२९३ द्वार में जिस व्यक्ति के सामने आलोचना की जा सकती है उसको खोजने की विधि बताई गई है।
१३०वें द्वार में प्रति जागरण के काल के सम्बन्ध में विवेचन किया गया है।
१३१ वें द्वार में मुनि की उपधि अर्थात् संयमोपकरण के धोने के काल का विवेचन है। इसमें यह बताया गया है कि किस उपधि को कितने काल के पश्चात् धोना चाहिए।
१३२वें द्वार में साधु-साध्वियों के आहार की मात्रा कितनी होना चाहिये, इसका विवेचन किया गया है। सामान्यत: यह बताया गया है कि मुनि को बड़े आंवले के आकार के बत्तीस कौर और साध्वी को अट्ठावीस कौर आहार ग्रहण करना चाहिए।
१३३वे द्वार में वसति अर्थात् मुनि के निवास की शुद्धि आदि का विवेचन किया गया है। मुनि के लिये किस प्रकार का आवास ग्राह्य होता है इसकी विवेचना इस द्वार में की गई है।
१३४वें द्वार में संलेखना सम्बन्धी विधि-विधान का विस्तृत विवेचन किया
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