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१०९ वें द्वार में नपुंसकों को और ११० वें द्वार में विकलांगों को दीक्षा के अयोग्य बताया गया है। नपुंसकों की चर्चा करते हुए टीका में उनके सोलह प्रकारों का उल्लेख हुआ है और सोलह प्रकारों में से दस प्रकार को दीक्षा के अयोग्य और छः प्रकार को दीक्षा के योग्य माना गया है।
१११ वें द्वार में साधु को कितने मूल्य का वस्त्र कल्प्य (ग्राह्य) है उसका विवेचन किया गया है । इसी प्रसंग में विभिन्न प्रदेशों और नगरों में मुद्रा विनिमय का पारस्परिक अनुपात क्या था, इसकी भी चर्चा हुई है।
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यहाँ यह भी बताया गया है कि एक लाख साभारक के मूल्य वाला वस्त्र उत्कृष्ट होता है और अट्ठारह साभारक या उससे भी कम मूल्यवाला वस्त्र जघन्य होता है। इन दोनों के मध्य का वस्त्र मध्यम कोटि का माना जाता है। मुनि के लिये अल्प मूल्य का वस्त्र ही ग्रहण करने योग्य है।
११२ वें द्वार में शय्यातर पिण्ड अर्थात जिसने निवास के लिये स्थान दिया हो उसके यहाँ से भोजन ग्रहण करना निषिद्ध माना गया है। इसी क्रम में अट्ठारह प्रकार के शय्यातरों का उल्लेख भी हुआ है।
११३वें द्वार में श्रुतज्ञान और सम्यक्त्व के पारस्परिक सम्बन्ध की चर्चा
हुई है।
११४वें द्वार में पांच प्रकार के निर्ग्रन्थों का पांच प्रकार के ज्ञानों से और चार प्रकार की गतियों से सम्बन्ध बताया गया है।
११५ वें द्वार में जिस क्षेत्र में सूर्य उदित हो गया है उस क्षेत्र से ग्रहीत अशन आदि ही कल्प्य होता है, शेष कालातिक्रान्त कहलाता है जो अकल्प्य (अग्राह्य) है। ११६वें द्वार में यह बताया गया है कि दो कोस से अधिक दूरी से लाया गया भोजन-पान क्षेत्रातीत कहलाता है और यह मुनि के लिये अकल्प्य है।
११७ वें द्वार में यह बताया गया है कि प्रथम प्रहर में लिया गया भोजन - पान आदि तीसरे प्रहर तक भोज्य होते हैं उसके बाद वे कालातीत होकर अकल्प्य हो जाता हैं।
११८ वें द्वार में पुरुष के लिये बत्तीस कवल भोजन ही ग्राह्य माना गया है। इससे अधिक भोजन प्रमाणतिक्रान्त होने से अकल्प्य माना जाता है।
११९ वें द्वार में चार प्रकार के निवास स्थानों को दुःख शय्या बताया गया है। इसी प्रसंग में यह भी स्पष्ट किया गया है कि जिन स्थानों पर अश्रद्धालु जन रहते हों, जहाँ पर दूसरों से कुछ प्राप्ति के लिये प्रार्थनायें की जाती हों, जहाँ मनोज्ञ शब्द, रूप अथवा भोजन आदि मिलते हों और जहाँ मर्दन आदि होता हो, वे स्थान मुनि
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