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________________ १३४ ७७वें और ७८वें द्वार में यह बताया गया है कि दस स्थितिकल्पों में मध्यवर्ती बाईस तीर्थंकरों के समय में चार स्थित, छः वैकल्पिक कल्प होते हैं जबकि प्रथम और अन्तिम तीर्थकर के समय में दस ही स्थित कल्प होते हैं। ७९ वें द्वार में निम्न प्रकार के चैत्यों का उल्लेख हुआ है (१) भक्ति चैत्य (२) मंगल चैत्य (३) निश्राकृत चैत्य (४) अनिश्राकृत चैत्य और (५) शाश्वत चैत्य | - ८० वें द्वार में निम्न पांच प्रकार की पुस्तकों का उल्लेख हुआ है - ( १ ) गण्डिका (२) कच्छपी (३) मुष्टि (४) संयुक्त फलक (५) छेदपाटी । इसी क्रम में ८१ वें द्वार में पांच प्रकार के दण्डों का, ८२ वें द्वार में पांच प्रकार के तृणों का, ८३ वें द्वार में पांच प्रकार के चमड़े का और ८४ वें द्वार में पांच प्रकार के वस्त्रों का विवेचन किया गया है। ८५ वें द्वार में पांच प्रकार के अवग्रहों (ठहरने के स्थानों) का और ८६ वें द्वार में बाइस परीषहों का विवेचन किया गया है। ८७ वें द्वार में सात प्रकार की मण्डलियों का उल्लेख है तो ८८ वें द्वार में जम्बूस्वामी के समय में जिन दस बातों का विच्छेद हुआ, उनका उल्लेख है। ८९ वें द्वार में क्षपक श्रेणी का और ९० वें द्वार में उपशम श्रेणी का विवेचन है। १ वें द्वार में स्थण्डिल भूमि (मूल-मूत्र विसर्जन करने का स्थान ) कैसी होनी चाहिए- इसका विवेचन उपलब्ध होता है। ९२वें द्वार में चौदह पूर्वी और उनके विषय तथा पदों की संख्या आदि का निर्देश किया गया है। ९३वें द्वार में निर्ग्रन्थों के पुलाक, बकुश, कुशील, निर्ग्रन्थ और स्नातक - ऐसे पांच प्रकारों की चर्चा है। ९४ वें द्वार में निर्ग्रन्थ, शाक्य, तापस, गैरूक और आजीवक ऐसे पांच प्रकार के श्रमणों की चर्चा है। ९५ वें द्वार में संयोजन, प्रमाण, अंगार, धूम और कारण ऐसे ग्रासैषणा के पांच दोषों का विवेचन किया गया है। मुनि को भोजन करते समय स्वाद के लिये भोज्य पदार्थों का सम्मिश्रण करना, परिमाण से अधिक आहार करना, भोज्य पदार्थों में राग रखना, प्रतिकूल भोज्य पदार्थों की निन्दा करना और अकारण आहार करना निषिद्ध है। ९६ वें द्वार में पिण्ड-पाणैषणा के सात प्रकारों का उल्लेख हुआ है। ९७ वें द्वार में भिक्षाचर्या अष्टक अर्थात् भिक्षाचर्या के आठ प्रकारों का विवेचन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001688
Book TitleSagar Jain Vidya Bharti Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2002
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size11 MB
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