SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 140
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चर्चा अनेक अपेक्षाओं से उपलब्ध होती है। पैसठवें द्वार में जहाँ विनय के बावन भेदों की चर्चा है, वहीं छियासठवें द्वार में चरण सत्तरी और सड़सठवें द्वार में करण सत्तरी का विवेचन है। पंच महाव्रत, दस श्रमण धर्म, सत्रह प्रकार का संयम, दस प्रकार की वैयावृत्य, नौ ब्रह्मचर्य गुप्तियां, तीन रत्नत्रय, बारह तप और क्रोध आदि चार कपायों का निग्रह ये चरण सत्तरी के सत्तर भेद हैं। १३३ प्रस्तुत कृति में यह भी बताया गया है कि अन्य अन्य आचार्यों की कृतियों में चरण सत्तरी के इन सत्तर भेदों का वर्गीकरण किस-किस प्रकार से किया गया है। करण-सत्तरी के अन्तर्गत सोलह उद्गम दोषों, सोलह उत्पादन दोषों, दस एषणा दोंषों, पांच ग्रासेषणा दोषों, पांच समितियों, बारह भावनाओं, पांच इन्द्रियों का निरोध, तीन गुप्ति आदि की चर्चा की गई है। अड़सठवें द्वार में जंघाचारण और विद्याचारण लब्धि अर्थात् आकाश गमन सम्बन्धी विशिष्ट शक्तियों की चर्चा की गई है। उनहतरवें द्वार में परिहार विशुद्धि तप के स्वरूप का और सत्तरवें द्वार में यथालन्दिक के स्वरूप का विवेचन है । इकहत्तरवें द्वार में अड़तालीस निर्यामकों और उनके कार्य विभाजन की चर्चा है। निर्यामक समाधिमरण ग्रहण किये हुए मुनि की परिचर्या करने वाले मुनियों को कहा जाता है। बहत्तरवें द्वार में पंच महाव्रतों की पच्चीस भावनाओं की विवेचना की गई है। इसी क्रम में तिहत्तरवां द्वार आसुरी आदि पच्चीस अशुभ भावनाओं का विवेचन करता है। चौहत्तरवें द्वार में विभिन्न तीर्थंकरों के काल में महाव्रतों की संख्या कितनी होती है, इसका निर्देश किया गया है। ७५ वें द्वार में चौदह कृतिकर्मों की चर्चा है। कृतिकर्म का तात्पर्य आचार्य आदि ज्येष्ठ मुनियों के वंदन से है। ७६ वें द्वार में भरत, ऐरावत आदि क्षेत्रों में कितने चारित्र होते हैं, इसकी चर्चा करता है। प्रथम और अंतिम तीर्थंकर के समय में भरत और ऐरवत क्षेत्र में सामायिक आदि पांच चारित्र पाये जाते हैं किन्तु शेष बाइस तीर्थंकरों के समय में इन क्षेत्रों में सामायिक, सूक्ष्म सम्पराय और यथाख्यात ये तीन चारित्र उपलब्ध होते हैं। महाविदेह क्षेत्र में पूर्वोक्त तीन चारित्र ही होते हैं। इन क्षेत्रों में छेदोपस्थापनीय और परिहार विशुद्धि चारित्र का कदाचित् अभाव होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001688
Book TitleSagar Jain Vidya Bharti Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2002
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy