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________________ १२६ आवश्यकता हुई वहां न केवल अपनी विवेचना प्रस्तुत की अपितु पूर्व पक्ष को प्रस्तुत कर उसका समाधान भी किया। जहां कहीं भी उन्हें व्याख्या में मतभेद की सूचना प्राप्त हुई उन्होंने स्पष्ट रूप से अन्य मत का भी निर्देश किया है। इसी प्रकार जहां मूलपाठ के सन्दर्भ में किसी प्रकार की विप्रतिपत्ति दिखाई दी उन्होंने पाठ को अपनी दृष्टि से शुद्ध बनाने का भी प्रयत्न किया है। इस प्रकार प्रस्तुत ग्रन्थ की यह टीका भी अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है। प्रवचनसारोद्धार की विषयवस्तु प्रवचनसारोद्धार के प्रारम्भ में मंगल अभिधान के पश्चात् ६३ गाथाओं में इस के २७६ द्वारों का उल्लेख किया गया है। इन द्वारों के नामों को देखने से यह स्पष्ट हो जाता है कि प्रस्तुत कृति में जैनधर्मदर्शन के विविध पक्षों को समाहित करने का प्रयत्न किया गया है। यद्यपि प्रवचनसारोद्धार में मूल गाथाओं की संख्या मात्र १५९९ है फिर भी इसमें जैन धर्म दर्शन के अनेक महत्त्वपूर्ण पक्षों को समाहित करने का प्रयास किया गया है। मूल गाथाओं की संख्या कम होते हुए भी इसका विषय वैविध्य इतना है कि इसे " जैन धर्म दर्शन का लघु विश्वकोष" कहा जा सकता है। आगे हम इसके २७६ द्वारों की विषयवस्तु का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत करेंगे। प्रवचनसारोद्धार के प्रथम द्वार में चैत्यवंदन विधि का विवेचन किया गया है। चैत्यवंदन के सम्बन्ध में सर्वप्रथम दस त्रिकों की चर्चा की गई है। ये दस त्रिक निम्न हैं- १. त्रिनिषेधिका २. त्रिप्रदक्षिणा ३. त्रिप्रणाम ४. त्रिविधपूजा ५. त्रिअवस्था भावना ६. त्रिदशानिरीक्षण विरति ७. त्रिविध भूमि प्रमार्जन ८. वर्णत्रिक ९. मुद्रात्रिक और १०. प्रणिधान त्रिक। चैत्यवन्दन हेतु जिन - भवन में प्रवेश करते सर्वप्रथम पुष्प, ताम्बूल आदि सचित्त द्रव्यों का परिहार करे, आभूषण आदि अचित्त द्रव्यों का परिहार नहीं करे और एक अधोवस्त्र तथा एक उत्तरीय धारण करे। ज्ञातव्य है कि कुछ आचार्यों के अनुसार यहाँ अहंकार सूचक अचित्त द्रव्य जैसे छत्र, चामर, मुकुट आदि के भी त्याग का निर्देश है। प्रवचनसारोद्धार की टीका इस सम्बन्ध में विस्तृत विवेचना करती है। चक्षु द्वारा जिन प्रतिमा दिखाई देने पर अंजलि प्रग्रह करे और एकाग्रचित्त होकर पूर्वोक्त दसत्रिकों का अनुसरण करता हुआ जिन प्रतिमा को वन्दन करे । ये दसत्रिक निम्नानुसार हैं १. सर्वप्रथम निषेधिकात्रिक में गृही जीवन सम्बन्धी सावद्य व्यापार का प्रतिषेध २. जिन भवन सम्बन्धी सावध व्यापार का त्याग और ३. पूजा विधान सम्बन्धी सावद्य व्यापार का त्याग। कुछ अन्य आचार्यों के अनुसार ये तीन निषेधिकाएं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001688
Book TitleSagar Jain Vidya Bharti Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2002
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size11 MB
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