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________________ माया के चार प्रकार- १. अनंतानुबन्धी माया (तीव्रतम कपटाचार)- बांस की जड़ के समान कुटिल, २. अप्रत्याख्यानी माया (तीव्रतर कपटाचार)- भैंस के सींग के समान कुटिल, ३. प्रत्याख्यानी माया (तीव्र कपटाचार)- गोमूत्र की धारा के समान कुटिल, ४. संज्वलन माया (अल्प कपटाचार)- बांस के छिलके के समान कुटिल। लोभ मोहनीय-कर्म के उदय से चित्त में उत्पन्न होने वाली तृष्णा या लालसा लोभ कहलाती है। लोभ की सोलह अवस्थाएँ हैं- लोभ- संग्रह करने की वृत्ति, २. इच्छाअभिलाषा, ३. मूर्छा- तीव्र संग्रह-वृत्ति, ४. कांक्षा- प्राप्त करने की आशा, ५. गृद्धिआसक्ति, ६. तृष्णा- जोड़ने की इच्छा, वितरण की विरोधी वृत्ति, ७. मिथ्या- विषयों का ध्यान, ८. अभिध्या- निश्चय से डिग जाना या चंचलता, ९. आशंसना- इष्ट-प्राप्ति की इच्छा करना, १०. प्रार्थना- अर्थ आदि की याचना, ११. लोलपनता- चाटुकारिता, १२. कामाशा- काम की इच्छा, १३. भोगाशा- भोग्य-पदार्थों की इच्छा, १४. जीविताशा- जीवन की कामना, १५. मरणाशा- मरने की कामना और १६. नन्दिराग- प्राप्त सम्पत्ति में अनुराग। लोभ के चार भेद- १. अनंतानुबन्धी लोभ-मजीठिया रंग के समान जो छूटे नहीं, अर्थात् अत्यधिक लोभ। २. अप्रत्याख्यानी लोभ- गाड़ी के पहिये के औगन के समान मुश्किल से छूटने वाला लोभ। ३. प्रत्याख्यानी लोभ- कीचड़ के समान प्रयत्न करने पर छूट जाने वाला लोभ। ४. संज्वलन लोभ-हल्दी के समान शीघ्रता से दूर हो जाने वाला लोभ। नोकषाय- नोकषाय शब्द दो शब्दों के योग से बना है नो+कषाय। जैन-दार्शनिकों ने 'नो' शब्द को साहचर्य के अर्थ में ग्रहण किया है। इस प्रकार क्रोध, मान, माया और लोभ- इन प्रधान कषायों के सहचारी भावों अथवा उनकी सहयोगी मनोवृत्तियाँ जैन परिभाषा में नोकषाय कही जाती हैं। जहाँ पाश्चात्य मनोविज्ञान में काम-वासना को प्रमुख मूलवृत्ति तथा भय को प्रमुख आवेग माना गया है, वहाँ जैनदर्शन में उन्हें सहचारी कषाय या उप-आवेग कहा गया है। इसका कारण यही हो सकता है कि जहाँ पाश्चात्य विचारकों ने उन पर मात्र मनोवैज्ञानिक दृष्टि से विचार किया है, वहाँ जैन विचारणा में जो मानसिक तथ्य नैतिक दृष्टि से अधिक अशुभ थे, उन्हें कषाय कहा गया है और उनके सहचारी अथवा कारक मनोभाव को नोकषाय कहा गया है। यद्यपि मनोवैज्ञानिक दृष्टि से विचार करने पर नोकषाय वे प्राथमिक स्थितियाँ हैं, जिनसे कषायें उत्पन्न होती हैं, तथापि आवेगों की तीव्रता की दृष्टि से नोकषाय कम तीव्र होते हैं और कषायें अधिक तीव्र होती हैं। इन्हें कषाय का कारण भी कहा जा सकता है। जैन-ग्रन्थों में इनकी संख्या ९ (नौ) मानी गई है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001687
Book TitleSagar Jain Vidya Bharti Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size11 MB
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