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जैन परम्परा में प्रकारान्तर से मान के आठ भेद मान्य हैं- १. जाति मद, २. कुल मद, ३. बल (शक्ति) मंद, ४. ऐश्वर्य मद, ५. तप मद, ६. ज्ञान मद (सूत्रों का ज्ञान), ७. सौन्दर्य मद और ८. अधिकार ( प्रभुता ) । मान को मद भी कहा गया है।
मान निम्न बारह रूपों में प्रकट होता है- १. मान- अपने किसी गुण पर अहंवृत्ति, २. मद- अहंभाव में तन्मयता, ३. दर्प- उत्तेजना पूर्ण अहंभाव, ४. स्तम्भअविनम्रता, ५. गर्व- अहंकार, ६. अत्युक्रोश- अपने को दूसरे से श्रेष्ठ कहना, ७. परपरिवाद - परनिन्दा, ८. उत्कर्ष - अपना ऐश्वर्य प्रकट करना, ९ अपकर्ष- दूसरों को तुच्छ समझना, १० उन्नतनाम - गुणी के सामने भी न झुकना, ११. उन्नत- दूसरों को तुच्छ समझना और १२ पुर्नाम यथोचित रूप से न झुकना ।
अहंभाव की तीव्रता और मन्दता के अनुसार मान के भी चार भेद हैं
१. अनंतानुबन्धी मान - पत्थर के खम्भे के समान जो झुकता नहीं, अर्थात् जिसमें विनयगुण नाममात्र को भी नहीं है ।
२. अप्रत्याख्यानी मान- हड्डी के समान कठिनता से झुकने वाला अर्थात जो विशेष परिस्थितियों में बाह्य दबाव के कारण विनम्र हो जाता है।
३. प्रत्याख्यानी मान- लकड़ी के समान प्रयत्न से झुक जाने वाला अर्थात् जिसके | अन्तर में विनम्रता तो होती है, लेकिन जिसका प्रकटन विशेष स्थिति में ही होता है । ४. संज्वलन मान - बेंत के समान अत्यन्त सरलता से झुक जानेवाला अर्थात् जो आत्म गौरव को रखते हुए भी विनम्र बना रहता है।
माया
कपटाचार माया कषाय है । भगवतीसूत्र के अनुसार इसके पन्द्रह नाम हैं- १. माया- कपटाचार, २. उपाधि - ठगने के उद्देश्य से व्यक्ति के पास जाना, ३. निकृति - ठगने के अभिप्राय से अधिक सम्मान देना, ४. वलय- वक्रता पूर्ण वचन, ५. गहनठगने के विचार से अत्यन्त गूढ़ भाषण करना, ६. नूम- ठगने के हेतु निकृष्ट कार्य करना, ७. कल्क - दूसरों को हिंसा के लिए उभारना, ८. करूप- निन्दित व्यवहार करना, ९ निह्नता ठगाई के लिए कार्य मन्द गति से करना, १०. किल्विषिकभांडों के समान कुचेष्टा करना, ११. आदरणता - अनिच्छित कार्य भी अपनाना, १२. हनता अपनी करतूत को छिपाने का प्रयत्न करना, १३. वंचकता- ठगी और १४. प्रति- कुंचनता- किसी के सरल रूप से कहे गये वचनों का खण्डन करना, १५. सातियोग - उत्तम वस्तु में हीन वस्तु की मिलावट करना। ये सब माया की ही विभिन्न अवस्थाएँ हैं।
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