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भूमिका
काल, (६) अन्तर, (७) भाव और (८) अल्पबहुत्व। इन आठ अनुयोगद्वारों को आधार बनाकर प्रत्येक द्वार में जीव के तत्सम्बन्धी पक्ष की चर्चा की गई हैं। आठ अनुयोगद्वारों के उल्लेख के पश्चात् ग्रन्थ में चौदह मार्गणास्थानों, चौदह जीवस्थानों और चौदह गुणस्थानों के नामों का निर्देश किया गया है। मार्गणा वह है जिसके माध्यम से जीव अपनी अभिव्यक्ति करता है। जीव की शारीरिक, ऐन्द्रिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक शक्तियों की अभिव्यक्तियों के जो मार्ग हैं वे ही मार्गणा कहे जाते हैं। मार्गणाएँ निम्न हैं- (१) गति-मार्गणा, (२) इन्द्रियमार्गणा, (३) काय-मार्गणा, (४) योग-मार्गणा, (५) वेद-मार्गणा, (६) कषायमार्गणा, (७) ज्ञान-मार्गणा, (८) संयम-मार्गणा, (९) दर्शन-मार्गणा, (१०) लेश्या-मार्गणा, (११) भव्यत्व-मार्गणा, (१२) सम्यक्त्व-मार्गणा, (१३) संज्ञीमार्गणा और (१४) आहार-मार्गणा। इसी क्रम में आगे चौदह गुणस्थानों का जीवसमास के नाम से निर्देश किया गया हैं। वे चौदह गुणस्थान निम्न हैं
(१) मिथ्यात्व गुणस्थान, (२) सास्वादन गुणस्थान, (३) मिश्र गुणस्थान, (४) अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान, (५) देश-विरत गुणस्थान, (६) प्रमत्तसंयत गुणस्थान, (७) अप्रमत्तसंयत गुणस्थान, (८) अपूर्वकरण गुणस्थान, (९) अनिवृत्तिबादर गुणस्थान, (१०) सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थान, (११) उपशान्तमोह गुणस्थान, (१२) क्षीणमोह गुणस्थान, (१३) सयोगीकेवली गुणस्थान और (१४) अयोगीकेवली गुणस्थान।
इन प्रारम्भिक निर्देशों के पश्चात् जीवसमास के प्रथम सत्पदप्ररूपणाद्वार में उपर्युक्त चौदह मार्गणाओं के सन्दर्भ में उनकी भेद-प्रभेदों की चर्चा करते हुए यह स्पष्ट किया गया है कि किस मार्गणा के किस भेद अथवा प्रभेद में कितने गुणस्थान उपलब्ध होते हैं। वस्तुतः प्रथम सत्पदप्ररूपणा द्वार चौदह मार्गणाओं
और चौदह गुणस्थानों के पारस्परिक सह-सम्बन्धों को स्पष्ट करता है। हमारी जानकारी में अचेल परम्परा में षट्खण्डागम और सचेल परम्परा में जीवसमास ही वे प्रथम ग्रन्थ है जो गुणस्थानों और मार्गणाओं के सह-सम्बन्ध को स्पष्ट करते हैं। ज्ञातव्य है कि आचार्य कुन्दकुन्द ने अपने ग्रन्थ नियमसार में जीवस्थान, मार्गणास्थान और गुणस्थान तीनों को स्वतन्त्र सिद्धान्तों के रूप में प्रतिस्थापित किया है। ऐसा लगता है कि आचार्य कुन्दकुन्द के समय में ये तीनों अवधारणायें न केवल विकसित हो चुकी थीं, अपितु इनके पारस्परिक सम्बन्ध भी सुस्पष्ट किये जा चुके थे। यदि हम इस सन्दर्भ में जीवसमास की स्थिति का विचार करे तो हमें स्पष्ट लगता है कि जीवसमास के रचनाकाल तक ये अवधारणाएँ अस्तित्व में तो आ चुकी थीं, किन्तु इनका नामकरण संस्कार नहीं हुआ था। जीवसमास की गाथा छह में चौदह मार्गणाओं के नामों का निर्देश है, किन्तु
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