SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 63
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५६ पञ्चसंग्रह- वेयण कसाय वेडव्विय मारणंतिओ समुग्धाओ । तेजाऽऽहारो छट्टो सत्तमओ केवलीणं च ।। १९६ ।। नरक में अन्तरकाल जीवसमास चडवीस मुहुत्ता सत्त दिवस पक्खो य मास दुग चउरो । छम्मासा रयणाइसु चउवीस मुहुत्त सण्णियरे ।। २५० || पञ्चसंग्रह जीवसमास i पणयालीस मुहूत्ता पक्खो मासो य विणि चउमासा । छम्मास वरिसमेय च अंतरं होइ पुढवीणं ।। २०६ ।। (१) नरक (२) नरक २४ मुहूर्त ७ दिन जीवसमास पञ्चसंग्रह ४५ मुहूर्त १ पक्ष सम्यक्त्वादि का विरहकाल जीवसमास पञ्चसंग्रह — (३) नरक १ पक्ष १ मास (४) नरक १ मास २ मास Jain Education International (५) नरक २ मास ४ मास सम्मत्त सत्तगं खलु विरयाविरई होइ चौदसगं । विरईए पनरसगं विरहिय कालो अहोरत्ता । । २६२ ।। (६) नरक ४ मास ६ मास (७) नरक ६ मास । २५० ॥ १ वर्ष ।।२०६ ।। सम्मत् सत्त दिणा विरदाविरदे य चउदसा होति । विरदेसु य पण्णरसं विरहियकालो य बोहव्वो ।। २०५ ।। दोनों गाथा का अर्थ समान है। मात्र शब्दों का अन्तर है। विषयवस्तु जीवसमास की प्रारम्भिक गाथाओं में ही यह स्पष्ट कर दिया गया है कि इस ग्रन्थ में चार निक्षेपों, छह एवं आठ अनुयोगद्वारों और चौदह मार्गणाओं के आधार पर जीव के स्वरूप का एवं उसके आध्यात्मिक विकास की चौदह अवस्थाओं का अर्थात् चौदह गुणस्थानों का विवेचन किया गया है । सम्पूर्ण ग्रन्थ २८७ प्राकृत गाथाओं में निबद्ध है और निम्न आठ द्वारों में विभक्त किया गया है- (१) सत्पदप्ररूपणा, (२) द्रव्य परिमाण, (३) क्षेत्र, (४) स्पर्शणा, (५) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001687
Book TitleSagar Jain Vidya Bharti Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy