SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 56
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भूमिका ४९ समाधान कर लिया गया है उसी प्रकार से यहाँ भी समाधान किया जा सकता है।" यद्यपि आदरणीय पण्डित जी ने दिगम्बर परम्परा की दृष्टि से यहाँ इस समस्या का समाधान तत्त्वार्थसूत्र के उस सूत्र की, सवार्थसिद्धि की व्याख्या के आधार पर करने का किया है। किन्तु यहाँ मेरा दृष्टिकोण कुछ भिन्न है। षट्खण्डागम में ऐसे अनेक तथ्य पाये जाते हैं जो दिगम्बर परम्परा की आज की मूलभूत मान्यताओं से अन्तर रखते हैं। यदि हम यहाँ स्त्री में सातवें गुणस्थान की सम्भावना और स्त्री-मुक्ति के समर्थक उसके प्रथम खण्ड सूत्र ९३ की विवादास्पद व्याख्या को न भी लें, तो भी कुछ प्राचीन मान्यताएँ षट्खण्डागम की ऐसी हैं, जो प्रस्तुत जीवसमास से समरूपता रखती हैं और दिगम्बर परम्परा की वर्तमान मान्यताओं से भिन्नता। आदरणीय पण्डित जी ने यहाँ यह प्रश्न उठाया है कि जीवसमास में १२ स्वर्गों की ही मान्यता है, किन्तु स्वयं षटखण्डागम में भी १२ स्वर्गों की ही मान्यता है। उसके वर्गणाखण्ड के प्रकृति अनुयोगद्वार की निम्न गाथाएँ १२ स्वर्गों का ही निर्देश करती है सक्कीसाणा पठमं दोच्चं तु सणक्कुमार-माहिंदा। तच्च तु बम्ह-लंतय सुक्क-सहस्सारया चोत्थ।। -५/५/७०; पृष्ठ सं०- ७०५ आणद-पाणदवासी तह आरण-अच्चुदा य जे देवा। पस्संति पंचमखिदिं छट्ठिम गेवज्जया देवा।। - ५/५/७१ सव्वं च लोगणालि पस्संति अणुत्तरेसु जे देवा। सम्खेत्ते य सकम्मे रूवगदमणंतभागं च।। - ५/५/७२; पृष्ठ सं०- ७०६ मात्र यह ही नहीं, जिस प्रकार जीवसमास में पाँच ही मल नयों की चर्चा हुई है, उसी प्रकार षटखण्डागम में भी सर्वत्र उन्हीं पाँच नयों का निर्देश हुआ है। तत्त्वार्थसूत्र की प्राचीन भाष्यमान परम्परा भी पाँच मूल नयों का ही निर्देश करती है, जबकि सर्वार्थसिद्धि मान्य पाठ में सात नयों की चर्चा है। वस्तुत: तत्त्वार्थसूत्र का भाष्यमान पाठ षट्खण्डागम और जीवसमास किसी प्राचीन धारा का प्रतिनिधित्व करते हैं। चाहे हम परम्परागत आधारों पर इन्हें एक-दूसरे के आधार पर बनाया गया न भी मानें तो भी इतना तो निश्चित ही है कि उनका मूल आधार पूर्वसाहित्य की परम्परा रही है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001687
Book TitleSagar Jain Vidya Bharti Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy