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________________ जीवसमास का मन्तव्य, उनकी षट्खण्डागम की भूमिका से उद्धृत करके अविकल रूप से दे रहे हैं। उनके निबन्ध का निष्कर्ष यही है कि- "किसी पूर्ववेत्ता आचार्य ने दिन पर दिन क्षीण होती हुई लोगों की बुद्धि और धारणा शक्ति को देखकर ही प्रवचन-वात्सल्य से प्रेरित होकर इसे गाथा रूप में निबद्ध कर दिया है और वह आचार्य परम्परा से प्रवहमान होता हुआ धरसेनाचार्य को प्राप्त हुआ है। उसमें जो कथन स्पष्ट था, उसकी व्याख्या में अधिक बल न देकर जो अप्ररूपित मार्गणाओं का गूढ़ अर्थ था, उसका उन्होंने भूतबलि और पुष्पदन्त को विस्तार से विवेचन किया और उन्होंने भी उसी गूढ़ रहस्य को अपनी रचना में स्पष्ट करके कहना या लिखना उचित. समझा।" ___ मात्र इतना ही नहीं दिगम्बर परम्परा के बहुश्रुत विद्वान् आदरणीय पण्डित जी ने अपनी भूमिका के उपसंहार में इस तथ्य को स्पष्ट रूप से स्वीकार किया है कि जीवसमास षट्खण्डागम के जीवट्ठाण प्ररूपणाओं का आधार रहा है। वे लिखते है कि इस प्रकार जीवसमास की रचना देखते हुए उसकी महत्ता हृदय पर स्वत: ही अंकित हो जाती है और इस बात में कोई सन्देह नहीं रहता कि उसके निर्माता पूर्ववेत्ता थे, या नहीं? क्योंकि उन्होंने उपर्युक्त उपसंहार गाथा में स्वयं ही 'बहुभंगदिट्ठियाए' पद देकर अपने पूर्ववेत्ता होने का संकेत कर दिया है। ___ समग्र जीवसमास का सिंहावलोकन करने पर पाठकगण दो बातों के निष्कर्ष पर पहुंचेंगे- एक तो यह कि विषय वर्णन की सूक्ष्मता और महत्ता की दृष्टि से यह बहुत ही महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है और दूसरी यह कि यह षट्खण्डागम के जीवट्ठाण-प्ररूपणाओं का आधार रहा है।" मात्र इतना ही नहीं वे इस तथ्य को भी स्वीकार करते हैं कि श्वेताम्बर संस्थाओं से प्रकाशित 'पूर्वभृत्सूरिसूत्रित' जीवसमास प्राचीन है और षट्खण्डागम के जीवस्थान और दिगम्बर प्राकृत पञ्चसंग्रह के जीवसमास का किसी रूप में उपजीव्य भी रहा है। मात्र आदरणीय पण्डित जी ने षट्खण्डागम की भूमिका के अन्त में यह अवश्य माना है कि जीवसमास में एक ही बात खटकने जैसी है, वह यह कि उसमें सोलह स्वर्गों के स्थान पर १२ स्वर्गों के ही नाम हैं। वे लिखते हैं- “यद्यपि जीवसमास की एक बात अवश्य खटकने जैसी है कि उसमें १६ स्वर्गों के स्थान पर १२ स्वर्गों के ही नाम हैं और नव अनुदिशों का भी नाम-निर्देश नहीं है, तथापि जैसे तत्त्वार्थसूत्र के 'दशाष्टपञ्चद्वादशविकल्पा: इत्यादि सूत्र में १६ के स्थान पर १२ कल्पों का निर्देश होने पर भी इन्द्रों की विवक्षा करके और 'नवसु अवेयकेषु विजयादिषु' इत्यादि सूत्र में अनुदिशों के नाम का निर्देश नहीं होने पर भी उसकी 'नवसु' पद से सूचना मान करके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001687
Book TitleSagar Jain Vidya Bharti Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size11 MB
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