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दिगम्बरों के मान्य साहित्य में यतिवृषभ की तिलोयपण्णति ( ५-६ शती) में भद्रबाहु का निर्देश तो है, ३० किन्तु उसमें ऐसा कोई उल्लेख नहीं है, जो यह बताता हो कि श्वेताम्बर एवं यापनीय परम्पराओं की उत्पत्ति कैसे हुई ? सर्वप्रथम हरिषेण के बृहत्कथाकोश (दसवी शती) में एवं विमलसेन के शिष्य देवसेन के भावसंग्रह (लगभग दसवीं शती) में श्वेताम्बर मत की उत्पत्ति की कथा को भद्रबाहु के कथानक के साथ जोड़ दिया गया है, ३१ किन्तु इसमें काल सम्बन्धी विसंगति स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती है। एक ओर इसमें भद्रबाहु के शिष्य शान्त्याचार्य के द्वादशवर्षीय दुष्काल में वल्लभी जाने और वहाँ जाकर कम्बल, पात्र, दण्ड एवं श्वेत वस्त्र ग्रहण करने का निर्देश है। साथ ही इस कथा में यह भी कहा गया है कि सुकाल होने पर शान्त्याचार्य द्वारा वस्त्रादि के त्याग का निर्देश देने पर उनके शिष्य (जिनचन्द्र ) ने उनको मार डाला। उसके बाद वह शान्त्याचार्य व्यंतर योनि में उत्पन्न होकर शिष्यों को पीड़ा देने लगा। शिष्यों द्वारा उनकी प्रतिदिन पूजा (शान्ति स्नात्र ) करने और काष्ठपट्टिका पर अंकित उनके चरण सदा साथ रखने का वचन देने पर वह व्यन्तर शान्त हुआ और इस प्रकार श्वेताम्बरों का कुलदेव बन गया। इसमें इस घटना का समय विक्रम की मृत्यु के १३६ वर्ष बाद अर्थात् वीर निर्वाण संवत् ६०६ बताया है। जबकि श्रुतकेवली भद्रबाहु का स्वर्गवास तो वीर निर्वाण संवत् १६२ में हो गया था। इस प्रकार यह कथानक न तो श्रुतकेवली भद्रबाहु के समय से संगति रखता है और न नैमित्तिक भद्रबाहु के समय से क्योंकि श्रुतकेवली भद्रबाहु तो उसके ४६० वर्ष पूर्व ही स्वर्गस्थ हो चुके थे और नैमित्तिक भद्रबाहु इस घटना के लगभग ४०० वर्ष बाद हुए हैं अतः यह कथानक पूरी तरह काल्पनिक है। इसमें सत्यांश मात्र यह है कि वस्त्र - पात्र सम्बन्धी यह विवाद आर्यभद्रगुप्त के गुरु शिवभूति और आर्यकृष्ण के बीच वीर निर्वाण संवत् ६०६ या ६०९ में ही हुआ था क्योंकि इसकी पुष्टि श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही साहित्यिक स्रोतों से हो जाती है। इन शिवभूति के एक शिष्य पूर्वधर भद्रगुप्त थे अतः नाम साम्य का सहारा लेकर इसे भद्रबाहु के साथ जोड़ दिया गया । पुनः इसमें भद्रबाहु के नाम के साथ श्रुतकेवली का अभाव और उनके अवन्तिका में होने का उल्लेख भी अचलता. के पक्षधर शिवभूति के शिष्य भद्रगुप्त से ही संगति रखते हैं ।
ज्ञातव्य है कि इन भद्रगुप्त से आर्यरक्षित ने न केवल पूर्वों का ज्ञान प्राप्त किया था अपितु उनका समाधिमरण / निर्यापना भी करवाई थी। यह निर्यापना भी अवन्ती के समीपवर्ती भाद्रपद देश में हुई थी। आर्यरक्षित भी स्वयं दशार्णपुर (वर्तमान मन्दसौर) के निवासी थे। इस प्रकार यहाँ पूर्वधर आर्य भद्रगुप्त के कथानक को श्रुतकेवली भद्रबाहु से जोड़ने का असफल प्रयास हुआ है। यह भी ज्ञातव्य है कि आर्य भद्रगुप्त और आर्यरक्षित के समय तक जिनकल्प का प्रचलन था । यद्यपि अचेलकता के समर्थक जिनकल्प के साथ-साथ पात्र, कम्बल आदि के ग्रहण के रूप में स्थविर कल्प भी प्रचलित
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