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________________ वाचना की पूर्णता पर यक्षा आदि उनकी बहनों का आना-उनके द्वारा सिंह का रूप बनाना—उनके इस व्यवहार से खिन्न होकर भद्रबाहु का वाचना देने से इंकार करना, अत्यधिक विनय करने पर, शेष चार पूर्वो की शब्द रूप से वाचना देना- आदि कुछ घटनायें वर्णित हैं, जिनकी सूचना अनेक श्वेताम्बर स्रोतों में प्राय: समान रूप से प्राप्त होती है। किन्तु ये सभी स्रोत भी ईसा की तीसरी-चौथी सदी से पूर्व के नहीं हैं अर्थात् पाँच सौ वर्षों के पश्चात् लिपिबद्ध हुए हैं। फिर भी स्थूलिभद्र के सिंह रूप की विकुर्वणा के अतिरिक्त इसमें ऐसा कुछ भी नहीं है, जिनकी प्रामाणिकता पर प्रश्न चिह्न लगाया जा सके। इस सम्पूर्ण विवरण से जो मुख्य बातें उभर कर सामने आती हैं, वे निम्न हैं- वाचना के समय भद्रबाहु अपनी वृद्धावस्था के कारण अपनी वैयक्तिक साधना को ही महत्त्वपूर्ण मानकर अनुपस्थित रहे। हो सकता है कि संघीय कार्यों के प्रति उनकी इस अन्यमनस्कता के कुछ अन्य भी कारण हों। स्थूलिभद्र भी उन्हें अपने व्यवहार से पूर्ण सन्तुष्ट नहीं कर सके, फलत: उन्हें दी जाने वाली वाचना भी मध्य में १० पूर्वो के बाद रोक दी गई। ज्ञातव्य है कि दिगम्बर स्रोतों में इस आगम-वाचना का कोई निर्देश नहीं है। इसके स्थान पर दिगम्बर स्रोत आचार के प्रश्नों पर, विशेष रूप से वस्त्र-पात्र-कम्बल सम्बन्धी विवाद के आधार पर श्वेताम्बर और यापनीय परम्पराओं के उद्भव की बात करते हैं। यद्यपि इस सम्बन्ध में दिगम्बर स्रोतों में जो विप्रतिपत्तियाँ हैं उसकी चर्चा तो मैं बाद में करूँगा किन्तु इतना दृढ़तापूर्वक कहा जा सकता है कि श्रुतकेवली भद्रबाहु के काल में श्वेताम्बर, दिगम्बर और यापनीय सम्प्रदायों के रूप में स्पष्ट संघ-भेद नहीं हुआ था- क्योंकि श्वेताम्बर (श्वेतपट्ट), दिगम्बर (निर्ग्रन्थ), यापनीय एवं कूर्चक आदि सम्प्रदायों के अस्तित्व सम्बन्धी जो भी साहित्यिक एवं अभिलेखीय प्रमाण मिलते हैं, वे सभी ईसा की चतुर्थ एवं पंचम शताब्दी से ही मिलते हैं। साहित्यिक स्रोतों में सर्वप्रथम विमलसूरि के 'पउमचरियं' में सियम्बर/सियम्बरा शब्द मिलता है। २८ इसमें सीता को दीक्षित अवस्था में सियम्बरा और एक अन्य प्रसंग में एक मुनि को सियम्बर कहा गया है। यह मात्र एक विशेषण है या सम्प्रदाय भेद का सूचक है, यह निर्णय कर पाना कठिन है। सम्प्रदाय भेद के रूप में इन शब्दों का सर्वप्रथम प्रयोग हल्सी (धारवाड़-उत्तरी कर्णाटक) के अभिलेख में मिलता है,२९ जो ईसा की पाँचवी शती का है। इस अभिलेख में निर्ग्रन्थ, श्वेतपट्ट, यापनीय, कूर्चक ऐसे चार जैन सम्प्रदायों का उल्लेख है। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि स्पष्ट संघ भेद ईसा की पांचवी शती की घटना है जिसका सम्बन्ध चाहे किसी रूप में नैमित्तिक भद्रबाहु से तो हो सकता है किन्तु श्रुतकेवली भद्रबाहु से कदापि नहीं है। इसका यह अर्थ भी नहीं है कि दिगम्बर स्रोतों में जो वस्त्र-पात्र विवाद की सूचना है, वह पूर्णत: निःस्सार है। दिगम्बर परम्परा के भद्रबाहु सम्बन्धी कथानकों में संघ भेद सम्बन्धी जो घटनाक्रम वर्णित हैं उसमें कितना सत्यांश है, यह समझने के लिये पहले इनकी समीक्षा कर लेनी होगी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001687
Book TitleSagar Jain Vidya Bharti Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size11 MB
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