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________________ १३६ वही आस्रव, बन्ध एवं विपाक हेय कहा जाता है जिसके कारण आत्मा का स्वस्वभाव विकारी बनता है अर्थात् विभाव परिणति होती है। जैन परम्परा में इन्हें घाती कर्म कहा गया है। पुण्य द्वारा जिन कर्म प्रकृतियों का बन्ध होता है वे सभी अघाती कर्म की हैं अर्थात् उनसे आत्मा का स्वभाव विकारी नहीं होता है। मोक्ष-प्राप्ति के समय में आयुष्य कर्म का क्षय होने पर अर्थात् आयुष्य पूर्ण होने पर पुण्य कर्म भी स्वत: ही समाप्त हो जाते हैं। पुण्य कर्मों को क्षय करने पर किसी प्रयत्न या पुरुषार्थ की अपेक्षा नहीं होती है। पुण्य कर्म तभी बन्धक बनते हैं जब वे फलाकांक्षा और रागात्मकता से युक्त होते हैं। अन्यथा तो वे ईर्यापथिक कर्म की तरह प्रथम समय में बंधकर दूसरे ही समय में निर्जरित हो जाते हैं, उनका स्थिति बन्ध नहीं होता है, क्योंकि स्थिति बन्ध कषाय के निमित्त से होता है और कषाय चाहे किसी भी रूप में हो वह पुण्य रूप नहीं माना जा सकता है। पुण्य प्रकृति का बन्ध तो मन, वचन, काया के शुभ योग ही करते हैं। कषाय के अभाव में वीतराग के पुण्य कर्म होते हए भी मात्र ईर्यापथिक आस्रव एवं बन्ध होता है। जैन कर्म सिद्धान्त का नियम है कि ग्यारहवें गुणस्थान में कषाय के उदय न होने पर जीवों के प्रति करुणा, सेवा एवं विनय रूप पुण्य प्रवृत्तियां रहने पर भी उनसे मात्र द्विसमय की सत्ता वाले ईर्यापथिक सातावेदनीय (पुण्य प्रकृति) का बन्ध होता है। जिसे जैन परम्परा में ईर्यापथिक कर्म या अकर्म कहा गया है, ऐसा कर्म वस्तुत: कर्म ही नहीं है। वस्तुत: जो भवभ्रमण का कारण हो या मुक्ति में बाधक हो या जिससे आत्म-स्वभाव विकार दशा या विभाव दशा को प्राप्त होता हो वही कर्म है, शेष तो अकर्म ही है। सूत्रकृतांग में अप्रमाद की स्थिति में सम्पन्न क्रिया को अकर्म कहा गया है। इसलिए वह सद्प्रवृत्ति रूप पुण्य कर्म न तो हेय है और न उपेक्षा के योग्य है, अपितु ऐसा कर्म तो कर्त्तव्य भाव से करणीय ही माना गया है। वस्तुत: जो लोग पुण्य को बन्धन रूप मानकर उसकी उपेक्षा का निर्देश करते हैं, वे पुण्य के वास्तविक स्वरूप से परिचित ही नहीं हैं। उन्होंने फलाकांक्षा युक्त सकाम कर्म करने को ही पुण्य कर्म समझ लिया है। जो वास्तविक अर्थ में पुण्य कर्म न होकर पाप ही है, क्योंकि 'राग' पाप है। पुण्य की उपादेयता का प्रश्न - पुण्य की उपादेयता को सिद्ध करने के लिए आध्यात्मिक साधक प्रज्ञापुरुषा पं० कन्हैयालाल जी लोढ़ा ने अति परिश्रम करके अपनी कृति में सप्रमाण यह सिद्ध - करने का प्रयत्न किया है कि पुण्य हेय नहीं है, अपितु उपादेय है। यदि पुण्य कर्म को मुक्ति में बाधक मानकर हेय मानेंगे तो तीर्थंकर नाम गोत्र कर्म को भी मुक्ति में बाधक मानना होगा, किन्तु कोई भी जैन विचारक तीर्थंकर नाम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001687
Book TitleSagar Jain Vidya Bharti Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size11 MB
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