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लोग यह समझ बैठते हैं कि अमुक काम नहीं करने से अपने को पुण्य-पाप का लेप नहीं लगेगा, इससे वे काम को छोड़ देते हैं पर बहुधा उनकी मानसिक क्रिया नहीं छूटती। इससे वे इच्छ रहने पर भी पुण्य-पाप के लेप (बन्ध) से अपने को मुक्त नहीं कर सकते। यदि कषाय (रागादिभाव) नहीं है तो ऊपर की कोई भी क्रिया आत्मा को बन्धन में रखने में समर्थ नहीं है। इससे उल्टे, यदि कषाय का वेग भीतर वर्तमान है तो ऊपर से हजार यत्न करने पर भी कोई अपने को बन्धन से छुड़ा नहीं सकता। इसी से यह कहा जाता है कि आसक्ति छोड़कर जो काम किया जाता है वह बन्धनकारक नहीं होता।१९
__ अत: बन्धन के भय से.परोपकार की प्रवृत्तियों एवं लोकहित के अपने दायित्वों को छोड़ बैठना उचित नहीं हैं। क्या पुण्यकर्म (शुभकर्म) आस्रव ही है?
वस्तुत: पुण्य को अनुपादेय या हेय मानने की प्रवृत्ति का मूल कारण उसे आस्रव रूप मानना है। यह ठीक है कि उमास्वाति ने तत्त्वार्थसूत्र में शुभ का आस्रव कहा है, किन्तु प्रथम तो ध्यान रखना आवश्यक है कि शुभ का आस्रव हेय नहीं है। उमास्वाति ने भी कहीं भी शुभ को हेय नहीं कहा है। जो भी आस्रव है, वह सभी हेय या अनुपादेय है ऐसा अनेकान्तवादी जैन दर्शन का सिद्धान्त नहीं है। आचारांग सूत्र में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि जो आस्रव के हेतु हैं, वे परिस्रव अर्थात् संवर और निर्जरा के हेतु भी बन जाते हैं और जो परिस्रव अर्थात संवर और निर्जरा के हेतु हैं वे आस्रव के हेतु भी बन सकते हैं। अत: पुण्य-कर्म आस्रव रूप ही हैं- ऐसी जैन दर्शन की एकान्त अवधारणा नहीं है। अपनी कृति में पं० प्रवर कन्हैयालाल जी लोढ़ा कसायपाहुड की जयधवल टीका के आधार पर लिखते हैं कि दया, दान, करुणा, वात्सल्य, वैयावृत्य आदि सद् प्रवृत्तियो को शुभयोग व पुण्य कहा गया है। साथ ही शुभयोग को संवर भी कहा गया है। जयधवला में कहा गया है कि शुभ और शुद्ध परिणामों से कर्मों का क्षय न माना जाये तो फिर कर्मों का क्षय हो ही नहीं सकता। वस्तुत: उनकी यह अवधारणा युक्तिसंगत है कि शुभभाव कषाय के उदय से नहीं, कषाय की मंदता से होते हैं अत: वे संवर रूप भी हैं। यह निश्चित सिद्धान्त है कि शुभ परिणामों के उदय से अशुभ परिणामों का संवर होता है और अशुभ परिणामों का संवर ही वास्तविक अर्थ में संवर है। पुण्य में प्रवृत्ति होने से पाप से निवृत्ति स्वाभाविक रूप से होती है। अत: पुण्य को आस्रव रूप और संवर रूप दोनों ही मानना होगा। पुण्य चाहे शुभ का आस्रव हो, किन्तु उसी समय वह अशुभ का तो संवर है ही। पुण्य कर्म और उनका बन्ध एवं विपाक
यह सत्य है कि पुण्य कर्म भी है। क्योंकि उसका आत्रव, बन्ध और विपाक माना गया है, किन्तु सभी प्रकार के आस्रव और बन्ध समान नहीं होते हैं। वस्तुत:
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