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________________ १२१ गुप्तकाल की एक अन्य घटना जैन आचार्य समन्तभद्र से सम्बन्धित है। ऐसा लगता है कि गुप्तकाल में वाराणसी में ब्राह्मणों का एकछत्र प्रभाव हो गया था। जैन अनुश्रुति के अनुसार समन्तभद्र को, जो कि जैन परम्परा की चौथी-पाँचवी शताब्दी के एक प्रकाण्ड विद्वान् थे, भस्मक रोग हो गया था और इसके लिए वे दक्षिण से चलकर वाराणसी आये थे। अनुश्रुति के अनुसार उन्होंने यहाँ शिव-मन्दिर में पौरोहित्य-कर्म किया और शिव के प्रचुर नैवेद्य से क्षुधा-तृप्ति करते रहे। किन्तु एक बार वे नैवेद्य को ग्रहण करते हुए पकड़े गये और कथा के अनुसार उन्होंने अपनी प्रतिष्ठा की रक्षा के लिए स्वयम्भूस्तोत्र की रचना और शिवलिंग से चन्द्रप्रभ की चतुर्मुखी प्रतिमा प्रकट की।४४ .. यह कथा एक अनुश्रुति ही है; किन्तु इससे दो-तीन बातें फलित होती हैं। प्रथम तो यह कि समन्तभद्र को अपनी ज्ञान-पिपासा को शान्त करने के लिए अन्य दर्शनों के ज्ञान को अर्जित करने के लिए सुदूर दक्षिण से चलकर वाराणसी आना पड़ा, क्योंकि उस समय भी वाराणसी विद्या का केन्द्र माना जाता था। उनके द्वारा शिव मन्दिर में पौरोहित्य कर्म को स्वीकार करना सम्भवत: यह बताता है कि या तो उन्हें जैन मुनि के वेश में वैदिक परम्परा के दर्शनों का अध्ययन कर पाना सम्भव न लगा हो अथवा यहाँ पर जैनों की बस्ती इतनी नगण्य हो गयी हो कि उन्हें अपनी आजीविका के लिए पौरोहित्य-कर्म स्वीकार करना पड़ा हो। वस्तुत: उनका यह छद्मवेशधारण विद्या अर्जन के लिए ही हुआ होगा, क्योंकि ब्राह्मण पंडित नास्तिक माने जाने वाले नग्न जैन मुनि को विद्या प्रदान करने को सहमत नहीं हुए होंगे। इस प्रकार जैनों को विद्या अर्जन के लिए भी वाराणसी में संघर्ष करना पड़ा है। जैसा कि हमने पूर्व में उल्लेख किया है गुप्तकाल में भी काशी में जैनों का अस्तित्व रहा है। यद्यपि यह कहना अत्यन्त कठिन है कि उस काल में इस नगर में जैनों का कितना तथा क्या प्रभाव था? पुरातात्विक साक्ष्य हमें केवल यह सूचना देते हैं कि उस समय यहाँ जैन मन्दिर थे। काशी से जो जैन मूर्तियाँ उपलब्ध हुई हैं उनमें ईसा की लगभग छठी शताब्दी की महावीर की मूर्ति महत्त्वपूर्ण है। यह मूर्ति स्थानीय भारत कला भवन में संरक्षित है (क्रमांक १६२)। राजघाट से प्राप्त नेमिनाथ की मूर्ति लगभग सातवीं शताब्दी की मानी जाती है। यह मूर्ति भी भारत कला भवन में है। अजितनाथ की भी लगभग सातवीं शताब्दी की एक मूर्ति वाराणसी में उपलब्ध हुई है जो वर्तमान में राजकीय संग्रहालय, लखनऊ में है (क्रमांक ४९-१९९)। इसी प्रकार पार्श्वनाथ की भी लगभग आठवीं शताब्दी की एक मूर्ति, जो कि राजघाट से प्राप्त हुई थी, राजकीय संग्रहालय लखनऊ में रखी है। इससे यह प्रतिफलित होता है कि ईसा की पाँचवी-छठी शताब्दी से लेकर आठवीं शती तक वाराणसी में जैन मन्दिर और मूर्तियाँ थीं। इसका तात्पर्य यह भी है कि उस काल में यहाँ जैनों की बस्ती थी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001687
Book TitleSagar Jain Vidya Bharti Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size11 MB
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