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पार्श्व के युग में ही हमें जैन साहित्य में इन संघर्षों के कुछ उल्लेख मिलते हैं। वस्तुतः ये संघर्ष मुख्यतः कर्मकाण्डीय परम्परा को लेकर थे। जैसा कि सुविदित है कि जैन परम्परा हमेशा कर्मकाण्डों का विरोध करती रही। उसका मुख्य बल आन्तरिक शुद्धि संयम और ज्ञान का रहा है। पार्श्वनाथ वाराणसी के राजा अश्वसेन के पुत्र थे । पार्श्व को अपने बाल्यकाल में सर्वप्रथम उन तापसों से संघर्ष करना पड़ा जो देहदण्डन को धार्मिकता का समस्त उत्स मान बैठे थे और अज्ञानयुक्त देहदण्डन को ही धर्म के नाम पर प्रसारित कर रहे थे। पार्श्वनाथ के समय में कमठ की एक तापस के रूप में बहुत प्रसिद्धि थी । यह पंचाग्नि तप करता था। उसके पंचाग्नि तप में ज्ञात या अज्ञात रूप से अनेक जीवों की हिंसा होती थी । पार्श्व ने उसे यह समझाने का प्रयास किया कि कर्मकाण्ड ही धर्म नहीं है, उसमें विवेक और आत्मसंयम आवश्यक है । किन्तु आत्मसंयम का तात्पर्य भी मात्र देहदण्डन नहीं है। पार्श्व धार्मिकता के क्षेत्र में अन्ध-विश्वास और जड़क्रियाकाण्ड का विरोध करते हैं और इस प्रकार हम देखते हैं कि ऐतिहासिक दृष्टि से जैन परम्परा को अपनी स्थापना के लिए सर्वप्रथम जो संघर्ष करना पड़ा उसका केन्द्र वाराणसी ही था । पार्श्वनाथ और कमठ के संघर्ष की सूचना हमें जैन साहित्य के तीर्थोद्गालिक तथा आवश्यकनिर्युक्ति" में मिलती है। पार्श्वनाथ और कमठ का संघर्ष वस्तुतः ज्ञानमार्ग और देहदण्डन कर्मकाण्ड का संघर्ष था । कमठ और पार्श्व के अनुयायियों के विवाद की सूचना बौधायनधर्मसूत्र में भी है। जैन परम्परा और ब्राह्मण परम्परा के बीच दूसरे संघर्ष की सूचना हमें उत्तराध्ययनसूत्र से प्राप्त होती है । यह संघर्ष मूलत: जातिवाद या ब्राह्मणवर्ग की श्रेष्ठता को लेकर था। उत्तराध्ययन एवं उनकी नियुक्ति से हमें यह सूचना प्राप्त होती है कि हरिकेशिबल और रुद्रदेव के बीच एवं जयघोष और विजयघोष के बीच होने विवादों का मूल केन्द्र वाराणसी ही था।४२ ये चर्चाएँ आगम ग्रन्थों और उनकी नियुक्तियों और चूर्णियों में उपलब्ध हैं और ईसापूर्व की शताब्दियों में वाराणसी में जैनों की स्थिति की सूचना देती हैं।
गुप्तकाल में वाराणसी में जैनों की क्या स्थिति थी इसका पूर्ण विवरण तो अभी खोज का विषय है । हो सकता है कि भाष्य और चूर्णी साहित्य से कुछ तथ्य सामने आयें। पुरातात्विक प्रमाणों; राजघाट से प्राप्त ॠषभदेव की मूर्ति और पहाड़पुर से प्राप्त गुप्त संवत् १५८ (४७९ ई०) के एक ताम्रपत्र से इतना तो निश्चित हो जाता है कि उस समय यहाँ जैनों की बस्ती थी । यह ताम्रपत्र यहाँ स्थिति बटगोहली विहार नामक जिन - मन्दिर की सूचना देता है।
इस विहार का प्रबन्ध आचार्य गुणनन्दि के शिष्य करते थे। आचार्य गुणनन्दि पंचस्तूपान्वय में हुए हैं । ४३ पंचस्तूपान्वय श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्पराओं से भिन्न यापनीय सम्प्रदाय से सम्बन्धित था। इस ताम्रपत्र से यह भी ज्ञात हो जाता है कि मथुरा के समान वाराणसी में भी यापनीयों का प्रभाव था ।
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