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________________ ८० जैनधर्म में अचेलकत्व और सचेलकत्व का प्रश्न के ग्रन्थों को आधार नहीं बना रहे हैं। महावीर से पूर्ववर्ती तीर्थङ्करों में मात्र ऋषभ, अरिष्टनेमि और पार्श्व के कथानक ही ऐसे हैं, जो ऐतिहासिक महत्त्व के हैं। यद्यपि इनमें भी ऋषभ और अरिष्टनेमि के कथानक प्रागैतिहासिक काल के हैं। वेदों से भी हमें इनके सम्बन्ध में कोई विशेष जानकारी ( नामोल्लेख के अतिरिक्त ) नहीं मिलती है। वेदों में भी ये नाम किस सन्दर्भ में प्रयुक्त हुए हैं और किसके वाचक हैं ये तथ्य आज भी विवादास्पद ही हैं। इन दोनों के जीवनवृत्त के सम्बन्ध में जैन एवं जैनेतर स्रोतों से भी जो सामग्री उपलब्ध होती है वह ईसा की प्रथम शती के पूर्व की नहीं है। वेदों एवं ब्राह्मण-ग्रन्थों में व्रात्यों एवं वातरशना मुनियों के जो उल्लेख हैं', उनसे इतना तो अवश्य फलित होता है कि प्रागैतिहासिक काल में नग्न अथवा मलिन एवं जीर्णवस्त्र धारण करने वाले श्रमणों की एक परम्परा अवश्य थी। सिन्धुघाटी-सभ्यता की मोहन-जो-दड़ो एवं हड़प्पा से जो नग्न योगियों के अंकन वाली सीलें प्राप्त हुई हैं उनसे भी इस तथ्य की ही पुष्टि होती है कि नग्न एवं मलिन वस्त्र धारण करने वाले श्रमणों/योगियों/व्रात्यों की एक परम्परा प्राचीन भारत में अस्तित्व रखती थी। उस परम्परा के अग्र-पुरुष के रूप में ऋषभ या शिव को माना जा सकता है। किन्तु यह भी ध्यातव्य है कि इन सीलों में उस योगी को मुकुट और आभूषणों से युक्त दर्शाया गया है जिससे उसके नग्न निर्ग्रन्थ मुनि होने के सम्बन्ध में बाधा आती है। ये अंकन श्वेताम्बर तीर्थङ्कर मूर्तियों से आंशिक साम्यता रखते हैं, क्योंकि वे अपनी मूर्तियों को आभूषण पहनाते हैं। ऋषभ का अचेल धर्म प्राचीन स्तर के अर्धमागधी आगम उत्तराध्ययन में ऋषभ के नाम का उल्लेख मात्र है, उनके जीवन के सन्दर्भ में कोई विवरण नहीं है। इससे अपेक्षाकृत परवर्ती कल्पसूत्र एवं जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में ही सर्वप्रथम उनका जीवनवृत्त मिलता है, फिर भी इनमें उनकी साधना एवं आचार-व्यवस्था का कोई विशेष विवरण नहीं है। परवर्ती श्वेताम्बर, दिगम्बर ग्रन्थों में और उनके अतिरिक्त हिन्दूपुराणों तथा विशेषरूप से भागवत में ऋषभदेव के द्वारा अचेलकत्व के आचरण के जो उल्लेख मिलते हैं, उन सबके आधार पर यह विश्वास किया जा सकता है कि ऋषभदेव अचेल परम्परा के पोषक रहे होंगे। ऋषभ अचेल धर्म के प्रवर्तक थे, यह मानने में सचेल श्वेताम्बर परम्परा को भी कोई आपत्ति नहीं है क्योंकि उसकी भी मान्यता यही है कि ऋषभ और महावीर दोनों ही अचेल धर्म के सम्पोषक थे। ऋषभ के पश्चात् और अरिष्टनेमि के पूर्व मध्य के २० तीर्थङ्करों के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001686
Book TitleSagar Jain Vidya Bharti Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size14 MB
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