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________________ जैनधर्म में अचेलकत्व और सचेलकत्व का प्रश्न शताब्दी की है। दूसरे इसमें किसी भी प्रकार के प्रक्षेप आदि की सम्भावना भी नहीं है । अतः यह प्राचीन भी है और प्रामाणिक भी क्योंकि इसकी पुष्टि अन्य साहित्यिक स्रोतों से भी हो जाती है। अतः इस परिचर्चा में हमने सर्वाधिक उपयोग इसी सामग्री का किया है। ७९ महावीर के पूर्व निर्ग्रन्थ संघ में वस्त्र की स्थिति जैन अनुश्रुति के अनुसार इस अवसर्पिणी काल में भगवान् महावीर से पूर्व तेईस तीर्थङ्कर हो चुके थे। अतः प्रथम विवेच्य बिन्दु तो यही है कि अचेलता के सम्बन्ध में इन पूर्ववर्ती तीर्थङ्करों की क्या मान्यताएँ थीं ? यद्यपि सम्प्रदाय भेद स्थिर हो जाने के पश्चात् निर्मित ग्रन्थों में जहाँ दिगम्बर ग्रन्थ एक मत से यह उद्घोष करते हैं कि सभी जिन अचेल होकर ही दीक्षित होते हैं, वहाँ श्वेताम्बर ग्रन्थ यह कहते हैं कि सभी जिन एक देवदूष्य वस्त्र लेकर ही दीक्षित होते हैं । " मेरी दृष्टि में ये दोनों ही दृष्टिकोण साम्प्रदायिक अभिनिवेश से युक्त हैं। श्वेताम्बर और यापनीय परम्परा के अपेक्षाकृत प्राचीन स्तर के ग्रन्थों में स्पष्ट रूप से यह उल्लेख मिलता है कि प्रथम तीर्थङ्कर ऋषभदेव और अन्तिम तीर्थङ्कर महावीर की आचारव्यवस्था मध्यवर्ती बाईस तीर्थङ्करों की आचार व्यवस्था से भिन्न थी । " यापनीय ग्रन्थ मूलाचार प्रतिक्रमण आदि के सन्दर्भ में उनकी इस भिन्नता का तो उल्लेख करता है किन्तु मध्यवर्ती तीर्थङ्कर सचेल धर्म के प्रतिपादक थे, यह नहीं कहता है । जबकि श्वेताम्बर आगम उत्तराध्ययन में स्पष्ट रूप से यह भी उल्लेख है कि अन्तिम तीर्थङ्कर महावीर ने अचेल धर्म का प्रतिपादन किया, जबकि तेईसवें तीर्थङ्कर पार्श्वनाथ ने सचेल धर्म का प्रतिपादन किया था । " यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि बृहत्कल्पभाष्य में प्रथम और अन्तिम तीर्थङ्कर को अचेल धर्म का और मध्यवर्ती बाईस तीर्थङ्करों को सचेल - अचेल धर्म का प्रतिपादक कहा गया है । " यद्यपि उत्तराध्ययन स्पष्टतया पार्श्व के धर्म को 'सचेल' अथवा सान्तरोत्तर ( संतरुत्तर ) ही कहता है सचेल अचेल नहीं । 'मध्यवर्ती तीर्थङ्करों के शासन में भी अचेल मुनि होते थे, बृहत्कल्पभाष्य की यह स्वीकारोक्ति उसकी सम्प्रदाय निरपेक्षता की ही सूचक है। यद्यपि दिगम्बर और यापनीय परम्परा श्वेताम्बर मान्य आगमों एवं आगमिक व्याख्याओं के इन कथनों को मान्य नहीं करते हैं, किन्तु हमें श्वेताम्बर आगमों के इन कथनों में सत्यता परिलक्षित होती है, क्योंकि अन्य ऐतिहासिक स्रोतों से भी इन कथनों की बहुत कुछ पुष्टि हो जाती है। यहाँ हमारा उद्देश्य सम्प्रदायगत मान्यताओं से ऊपर उठकर मात्र प्राचीन ऐतिहासिक साक्ष्यों के आधार पर ही इस समस्या पर विचार करना है। अतः इस परिचर्चा में हम परवर्ती अर्थात् साम्प्रदायिक मान्यताओं के दृढ़ीभूत होने के बाद Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001686
Book TitleSagar Jain Vidya Bharti Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size14 MB
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