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सकारात्मक अहिंसा की भूमिका
है। जब राग नहीं होता है तो ये भी नहीं होता है और जहाँ राग-द्वेष का अभाव होता है वहाँ बन्धन सम्भव ही नहीं है। इसी प्रकार एक डाक्टर जब किसी रोगी के सड़े हुए अंग का आपरेशन करके उसे निकालता है तो उसमें उस सड़े हुए अंग में निहित कीटाणुओं के प्रति द्वेष
और रोगी के प्रति राग नहीं होता है। मात्र बचाने का भाव होता है। किसी प्यासे को पानी पिलाते समय हमें न तो जल के जीवों के प्रति द्वेष होता है और न प्यासे के प्रति राग। अतः सेवा, परोपकार आदि की प्रवृत्तियाँ राग-द्वेष से प्रेरित नहीं होती है अतः वे बन्धक भी नहीं होती है।
वस्तुतः सकारात्मक अहिंसा अर्थात् जीवन-रक्षण, सेवा, परोपकार आदि की प्रवृत्तियाँ रागात्मकता पर आधारित न होकर "आत्मवत् सर्वभूतेषु" की भावना पर आधारित होती हैं। "आत्मवत् सर्वभूतेषु" की यह अनुभूति तब तक यर्थाथ नहीं बनती जब तक की व्यक्ति के लिए दूसरों के पीड़ा और दुःख अपने नहीं बन जाते। यद्यपि जैन दर्शन प्रत्येक आत्मा की स्वतन्त्र सत्ता को स्वीकार करता है किन्तु साथ ही साथ वह यह भी मानता है कि संसार के सभी प्राणी मेरे ही समान हैं। आचारांगसूत्र (1/5/5 ) में स्पष्ट रूप से यह कहा गया है कि "जिसे तू दुःख देना चाहता है वह तू ही है।" यहाँ विवेक और संवेदनशीलता के आधार पर ही "आत्मवत् सर्वभूतेषु" की भावना को खड़ा किया गया है। वह मात्र तार्किक नहीं है। जब तक संसार के सभी प्राणियों के प्रति आत्मवत् भाव उत्पन्न नहीं होता है तब तक अहिंसा का अंकुर प्रकट ही नहीं हो सकता। अहिंसा के लिए रागात्मकता नहीं आत्मवत् दृष्टि आवश्यक है। क्योंकि यदि रागात्मकता सकारात्मक अहिंसा का आधार होगी तो व्यक्ति केवल अपनों की सेवा में प्रवृत्त होगा, दूसरों की सेवा में नहीं। सकारात्मक अहिंसा अर्थात रक्षा, सेवा आदि का आधार न तो प्रत्युपकार की भावना या स्वार्थ होता है और न राग। वह खड़ी होती है-- विवेकजन्य कर्तव्य बोध के आधार पर। क्या जीवन के सभी रूप समान महत्त्व हैं ?
अहिंसा की नकारात्मक व्याख्या के लिए सबसे अधिक जिम्मेदार यह अवधारणा रही कि जीवन के विविध रूप समान मूल्य और महत्त्व के हैं। परिणामस्वरूप जीवन के एक रूप बचाने में दूसरी रूपों की हिंसा अपरिहार्य होने पर जीवन-रक्षण के प्रयत्न को ही पाप या हिंसा में परिगणित कर लिया गया। यह सत्य है कि एक के जीवन के रक्षण एवं पोषण के लिये दूसरे जीवनों की कुर्बानी करनी ही पड़ती है। यदि हम एक वृक्ष या पौधे को जीवित रखना चाहते हैं तो उसे पानी तो देना ही होगा। वनस्पतिकाय के संरक्षण और वर्धन के लिए. पृथ्वीकाय, अपकाय और वायुकाय की हिंसा अपरिहार्य रूप से होगी। यदि हम किसी त्रस प्राणी के जीवन-रक्षण का कोई प्रयत्न करते हैं, तो हमें न केवल वनस्पतिकाय की अपितु पृथ्वीकाय, अपकाय आदि की हिंसा से जुड़ना होगा। इस संसार में जीवन जीने की व्यवस्था ही ऐसी है कि जीवन का एक रूप दूसरे रूप के आश्रित है और उस दूसरे रूप के हिंसा के बिना हम प्रथम स्प को जीवित नहीं रख सकते। यह समस्या प्राचीन जैनाचार्यों के समक्ष भी आयी थी। इस समस्या का समाधान उन्होंने अपने हिंसा के अल्प-बहुत्व के सिद्धान्त के आधार पर किया।
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