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________________ प्रो. सागरमल जैन 77 रागात्मकता के अभाव में चाहे कोई क्रिया कर्मासव का कारण भी बने तो भी वह बन्धन कारक नहीं हो सकती। क्योंकि उत्तराध्ययन (32/7 ) आदि जैन ग्रन्थों में बन्धन का मुख्य कारण राग और द्वेष की वृत्तियाँ ही मानी गयी हैं। दूसरों के रक्षण और सम्पोषण के प्रयत्नों में चाहे किसी सीमा तक हिंसा की बाह्य प्रवृत्ति भी हो सकती है किन्तु वह यर्थाथ रूप में बन्धन का हेतु नहीं है। यदि हम ऐसी प्रवृत्तियों को बन्धन रूप मानेंगे तो फिर तीर्थंकर की लोक-कल्याणकारी प्रवृत्तियों अर्थात् लोकमंगल के लिए विहार और उपदेश के कार्य को भी बन्धन को हेतु मानना होगा, किन्तु आगम के अनुसार उनका उपदेश संसार के जीवों के रक्षण के लिए होता है, वह बन्धन का निमित्त नहीं होता है। निष्काम कर्म बन्धक नही है ? इस समग्र चर्चा से यह फलित होता है कि पुण्य कर्म यदि मात्र कर्तव्य बुद्धि से अथवा राग-द्वेष से उपर उठकर किये जाते हैं तो वे बन्धक नहीं हैं। पुण्यबन्ध का कारण केवल तभी बनता है जब वह रागभाव से युक्त होता है। ज्ञातव्य है कि अपने किसी परिजन के रक्षण के प्रयत्नों की और मार्ग में चलते हुए पीड़ा से तड़फड़ाते किसी प्राणी के रक्षण के प्रयत्नों की मनोभूमिका कभी भी एक ही स्तर के नहीं होती है। प्रथम स्थिति में रक्षण के समस्त प्रयत्न रागभाव से या ममत्वबुद्धि से प्रतिफलित होते हैं, जबकि दूसरी स्थिति में आत्मतुल्यता के आधार पर परपीड़ा का स्व-संवेदन होता है और यह परपीड़ा का स्व-संवेदन अथवा कर्तव्य बुद्धि ही व्यक्ति को परोपकार या पुण्य कर्म हेतु प्रेरित करती है। जैन परम्परा में यहाँ सम्यक्दृष्टि जीव के आचारण के सम्बन्ध में कहा गया है-- सम्यक् दृष्टि जीवडा करे कुटुम्ब प्रतिपाल। अन्तर सू न्यारों रहे ज्यू धाय खिलावे बाल।। यह अनासक्त दृष्टि अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। वस्तुतः अलिप्तता और निष्कामता ही एक ऐसा तत्त्व है, जो किसी कर्म की बन्धक शक्ति को समाप्त कर देता है। जहाँ अलिप्तता है, निष्कामता है, वीतरागता है, वहाँ बन्धन नहीं। जिस पुण्य को बन्धन कहा जाता है वह पुण्य रागात्मकता से निश्रित पुण्य है। हम यह नहीं कह सकते हैं कि विश्व में समस्त प्रवृत्तिया राग से ही प्रेरित होती हैं। अनेक प्रवृत्तियां ऐसी हैं जो मात्र कर्तव्य बुद्धि से फलित होती हैं। दूसरे की पीड़ा हमारी पीड़ा इसलिए नहीं बनती हैं कि उसके प्रति हमारा रागभाव होता है, अपितु आत्मतुल्यता का बोध ही हमारे द्वारा उसकी पीड़ा के स्व-संवेदन का कारण होता है। जब किसी दूसरे शहर में होते हैं और वहाँ पीड़ा से तड़फड़ाते किसी मानव को सड़क पर पड़ा हुआ देखते हैं तो हम करुणाद्र हो उठते हैं-- यहाँ कौन सा रागभाव होता है। जो लोग दूर-दराज के गाँवों में जाकर चिकित्सा शिविर लगवाते हैं-- उनमें जो भी रोगी आते हैं, क्या उनके प्रति शिविर लगवाने वाले व्यक्ति का कोई राग-भाव होता है ? वह तो यह भी नहीं जानता है उसमें कौन लोग आयेंगे, फिर उन अज्ञात लोगों के प्रति उसमें राग भाव कैसे हो सकता है ? अतः यह एक भ्रान्त धारणा है रक्षा, सेवा, परोपकार आदि प्रवृत्तियों के पीछे सदैव रागभाव होता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001685
Book TitleSagar Jain Vidya Bharti Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages182
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size12 MB
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