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________________ प्रो. सागरमल जैन 71 अहिंसा की अवधारणा के साथ अनुकम्पा जुड़ी हुई है तो फिर उसे मात्र निषेध परक मानना एक भ्रान्ति है। अनुकम्पा एक विधायक शब्द है । जो लोग अनुकम्पा को मात्र निषेधपरक मानते हैं वे भ्रान्ति में हैं । अनुकम्पा में ने केवल दूसरों की पीड़ा का स्व-संवेदन होता है अपितु उसके निराकरण का सहस निःस्वार्थ प्रयत्न भी होते हैं । जब दूसरों की पीड़ा हमारी पीड़ा बन जाय तो यह असम्भव है कि उसके निराकरण का कोई प्रयत्न न हो । वस्तुतः जीवन में जब तक अनुकम्पा का हृदय नहीं होता तब तक सम्यक्-दर्शन भी सम्भव नहीं है। दूसरों की पीड़ा हमारी पीड़ा के समतुल्य भी हो सकती है जब हम उसका स्व-संवेदन करें। वस्तुतः दूसरों की पीड़ा का स्व-संवेदन ही वह स्रोत है जहाँ से सम्यक् - दर्शन का प्रकटन होता है और सकारात्मक अहिंसा अर्थात् पर - पीड़ा के निराकरणार्थ सेवा की पावना गंगा प्रवाहित होती है । सर्वत्र आत्मभाव मूलक करुणा और मैत्री की विधायक अनुभूतियों से अहिंसा की धारा प्रवाहित हुई । वस्तुतः "आत्मवत् सर्वभूतेषु" की विवेक - दृष्टि एवं जीवन के विविध रूपों के प्रति संवेदनशीलता की भावना को जब हम अहिंसा का तार्किक का आधार मानते हैं तो उसका अर्थ एक दूसरा रूप लेता है। "आत्मवत् सर्वभूतेषु" की विवेक - दृष्टि एवं सहानुभूति के संयोग में अहिंसा का एक सकारात्मक पक्ष सामने आता है। अहिंसा का अर्थ मात्र किसी को पीडा या दुःख देना ही नहीं है, अपितु उसका अर्थ, "दूसरों के दुःखों को दूर करने का प्रयत्न" भी है। यदि मैं अपनी करुणा को इतना सीमित बना लूँ कि मैं किसी को पीड़ा नहीं पहुचाऊँगा तो वह सही अर्थ में करुणा नहीं होगी । करुणा का अर्थ है दूसरों की पीड़ा को अपनी पीड़ा के रूप में देखना । जब दूसरों की पीड़ा मेरी अपनी पीड़ा बन जाती है तो फिर उस पीड़ा को दूर करने के प्रयत्न भी प्रस्फुटित होते हैं । यदि कोई व्यक्ति यह प्रतिज्ञा कर ले कि मैं किसी की हिंसा नहीं करूँगा, किसी को कष्ट नहीं दूँगा और चाहे वह यथार्थ में इसका पालन भी करता हो, लेकिन यदि वह दूसरों की पीड़ा से द्रवीभूत होकर उनकी पीड़ा को दूर करने का प्रयत्न नहीं करता है, तो वह निष्ठुर ही कहलायेगा । वस्तुतः जब "आत्मवत् सर्वभूतेषु" की विवेक - दृष्टि संवेदनशीलता की मनोभूमिका पर स्थित होती है तो दूसरों की पीड़ा हमारी पीड़ा बन जाती है। वस्तुतः अहिंसा का आधार मात्र तार्किक - विवेक नहीं है, अपितु भावनात्मक - विवेक है । भावनात्मक विवेक में दूसरों की पीड़ा अपनी पीड़ा होती है और जिस प्रकार अपनी पीड़ा को दूर करने के प्रयत्न सहजरूप से होते हैं, उसी प्रकार दूसरों की पीड़ा को दूर करने के प्रयत्न भी सहज रूप में अभिव्यक्त होते हैं। दूसरों की पीड़ाओं को दूर करने के इसी सहज प्रयत्न में अहिंसा का सकारात्मक पक्ष सन्निहित है । यदि अहिंसा में से उसका यह सकारात्मक पक्ष अलग कर दिया जाता है तो अहिंसा का हृदय ही शून्य हो जाता है। मिसेस स्टीवेन्शन ने जैन अहिंसा को जो हृदय शून्य बताया है उसके पीछे उनकी यही दृष्टि रही है। (The Heart of Jainism, p. 296 ) यद्यपि यह उनकी भ्रान्ति ही थी, क्योंकि उन्होंने जैनधर्म में निहित अहिंसा के सकारात्मक पक्ष को, जो न केवल सिद्धान्त में अपितु व्यवहार में भी आज तक जीवित है, देखने का प्रयत्न ही नहीं किया। उन्होंने मात्र अपने काल के सम्प्रदाय-विशेष के कुछ जैन मुनियों के आचार, व्यवहार और उपदेश के आधार पर ऐसा निष्कर्ष निकाल लिया था । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001685
Book TitleSagar Jain Vidya Bharti Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages182
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size12 MB
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