________________
70
सकारात्मक अहिंसा की भूमिका
अहिंसा का वह सकारात्मक पक्ष है जो दूसरो के जीवन-रक्षण के एवं उनके जीवन को कष्ट और पीड़ाओं से बचाने के प्रयत्नों के रूप में हमारे सामने आता है। यह सत्य है कि अहिंसा (Non-violence ) शब्द अपने आप में निषेधात्मक है । व्युत्पत्ति की दृष्टि से उसका अर्थ हिंसा मत करो तक ही सीमित होता प्रतीत होता है, किन्तु प्रश्नव्याकरणसूत्र में अहिंसा के जो साठ पर्यायवाची नाम दिये गये हैं, उन साठ नामों सम्भवतः दो-तीन को छोड़कर शेष सभी उसके सकारात्मक या विधायक पक्ष को प्रस्तुत करते हैं । उसमें अहिंसा के पर्यायवाची साठ निम्न नाम वर्णित हैं-- 1 निर्वाण, 2. निवृत्ति 3. समाधि 4 शान्ति, 5. कीर्ति, 6. कान्ति, 7. प्रेम, 8. वैराग्य 9 श्रुतांग, 10 तृप्ति, 11 दया, 12 विमुक्ति, 13. क्षान्ति, 14. सम्यक् आराधना, 15. महती, 16 बोधि, 17. बुद्धि, 18. धृति, 19. समृद्धि 20. ऋद्धि, 21. वृद्धि, 22 स्थिति (धारक), 23. पुष्टि ( पोषक), 24. नन्द (आनन्द), 25. भद्रा, 26. विशुद्धि, 27 लब्धि, 28 विशेष दृष्टि, 29. कल्याण, 30. मंगल, 31. प्रमोद, 32. विभूति, 33. रक्षा, 34. शील, 40. संयम, 41. शीलपरिग्रह, 42. संवर, 43. गुप्ति, 44. व्यवसाय 45 उत्सव, 46. आयतन, 48. यतन, 49. अप्रमाद, 50. आश्वासन, 51. विश्वास, 52 अभय, 53. सर्व अमाघात ( किसी को न मारना ), 54. चोक्ष (स्वच्छ ), 55 पवित्र, 56 शुचि, 57 पूता या पूजा, 58. विमल 59 प्रभात और 60. निर्मलतर [ प्रश्नव्याकरण, सूत्र 2/1/21
यज्ञ, 47
इस प्रकार जैन आचार - दर्शन में अहिंसा शब्द एक व्यापक दृष्टि को लेकर उपस्थित होता है। उसके अनुसार सभी सद्गुण अहिंसा में निहित है और अहिंसा एक मात्र नहीं सद्गुण है, अपितु सद्गुण - समूह की सूचक है ।
Jain Education International
हिंसा का प्रतिपक्ष अहिंसा है। यह अहिंसा की एक निषेधात्मक परिभाषा है। लेकिन हिंसा का त्याग मात्र अहिंसा नहीं है । निषेधात्मक अहिंसा जीवन के समग्र पक्षों को स्पर्श नहीं करती। वह आध्यात्मिक उपलब्धि नहीं कही जा सकती । निषेधात्मक अहिंसा मात्र बाह्य हिंसा नहीं करना है, यह अहिंसा के सम्बन्ध में मात्र स्थूल दृष्टि है। लेकिन यह मानना भ्रान्तिपूर्ण होगा कि जैनधर्म अहिंसा की इस स्थूल एवं बहिर्मुखी दृष्टि तब सीमित रही है। जैन दर्शन का यह केन्द्रीय सिद्धान्त शाब्दिक दृष्टि से चाहे नकारात्मक है, लेकिन उसकी अनुभूति नकारात्मक नहीं है । उसकी अनुभूति सदैव ही विधायक रही है। अहिंसा सकारात्मक है इसका एक प्रमाण यह है कि जैनधर्म में अहिंसा के पर्यायवाची शब्द के रूप में " अनुकम्पा " का प्रयोग हुआ है । अनुकम्पा शब्द जैन दर्शन का एक महत्त्वपूर्ण शब्द है । उसमें सम्यकत्व के एक अंग के रूप में भी अनुकम्पा का उल्लेख हुआ है। अनुकम्पा शब्द मूलतः दो शब्दों से मिलकर बना है। अनु+कम्पन् । "अनु" शब्द के विविध अर्थों में एक अर्थ है साथ-साथ अथवा सहगामी रूप से और कम्पन शब्द अनुभूति एवं चेष्टा का सूचक है । "अभिधान राजेन्द्राकेश" में अनुकम्पा शब्द की व्याख्या में कहा गया है। "अनुरुपं कम्पतै चैष्टतः इति अनुकम्पतः " । वस्तुतः अनुकम्पा पर - पीडा का स्व-संवेदन है, दूसरों की पीड़ा या दुःख की समानानुभूति है । उसी में अनुकम्पा को स्पष्ट करते हुए यह भी कहा गया है कि पक्षपात अर्थात् रागभाव से रहित होकर दुःखी - प्राणियों की पीड़ा को उनके दुःख को समाप्त करने की इच्छा ही अनुकम्पा है। यदि
--
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org