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________________ 68 : प्रो0 सागरमल जैन गडो हि कफ हेतुः स्यात नागरं पित्तकारणम् । ब्दयात्मनि न दोषोऽस्ति गुडनागरभेषजे।। जिस प्रकार गुड़ कफ जनक और सौंठ पित्त जनक है लेकिन दोनों के समन्वय में यह दोष नहीं रहते। इसी प्रकार विभिन्न आत्मवाद पृथक्-पृथक् रूप से नैतिक अथवा दार्शनिक दोषों से ग्रस्त है, लेकिन महावीर द्वारा किये गये इस समन्वय में वे सभी अपने-अपने दोषों से मुक्त हो जाते हैं यही महावीर के आत्मवाद की औचित्यता है। यही उनका वैशिष्ट्य है। सन्दर्भ 1. मज्झिमनिकाय, 2/3/7 2. संयुक्तनिकाय, 3/1/1 4. ये प्राचीनतम माने जाने वाले उपनिषद् महावीर के समकालीन ही हैं, क्योंकि महावीर के समकालीन "अजातशत्रु" का नाम निर्देश इनमें उपलब्ध हैं। बृहदा0 2/15-17 5. गीता अध्याय 3, श्लोक 27 अध्याय 2, श्लोक 21 अध्याय 8, श्लोक 17 6. अंगुत्तरनिकाय का छक्क निपात सुत्त तथा भगवान् बुद्ध, पृ0 185 (धर्मानन्दजी कौशम्बी) 7. गोशालक की छः अभिजातियाँ आध्यात्मिक विकास की भूमिकाएँ हैं -- 1. कृष्ण, 2. नील, 3. लोहित, 4. हरित, 5. शुक्ल, 6. परमशुक्ल, तुलनीय, 7. जैनों का लेश्या-सिद्धान्त -- (1) कृष्ण, (2) नील, (3) कपोत, (4) तेजो, ( 5 ) पद्म, (6) शुक्ल (विचारणीय तथ्य यह है कि गोशालक के अनुसार निर्गन्थ साधु तीसरे लोहित नामक वर्ग में हैं जबकि जैन धारणा भी उसे तेजोलेश्या (लोहित) वर्ग का साधक मानती है) 8. छान्दोग्य उपनिषद्, 3/14/3 बृहदारण्यक उपनिषद्, 5/6/1 कठोपनिषद्, 2/4/12 9. गीता, अध्याय 2 निदेशक, पार्श्वनाथ शोधपीठ, वाराणसी-5 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001685
Book TitleSagar Jain Vidya Bharti Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages182
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size12 MB
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