SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 72
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ महावीर अनेकान्तवादी थे, साथ ही वे इन विभिन्न आत्मवादों की दार्शनिक एवं नैतिक कमजोरियों को भी जानते रहे होंगे । अतः उन्होंने अपने आत्मवाद को इनमें से किसी भी सिद्धान्त के साथ नहीं बाँधा । उनका आत्मवाद इनमें से किसी भी एक वर्ग के अन्तर्गत नहीं आता, वरन् उनका आत्मवाद इन सबका एक सुन्दर संयोजित समन्वय है । ( 4 ) परिणामी आत्मवाद या कर्त्ता आत्मवाद या पुरुषार्थवाद (5) सूक्ष्म आत्मवाद ( 6 ) विभु आत्मवाद ( यही बाद में उपनिषदों का सर्वात्मवाद या ब्रह्मवाद बना है ) । आचार्य हेमचन्द्र ने अपने वीतराग स्तोत्र में एकांत नित्य आत्मवाद और एकान्त अनित्य आत्मवाद के दोषों का दिग्दर्शन कराते हुए बताया है कि वीतराग का दर्शन इन दोनों के दोषों से मुक्त है । विस्तारभय से नित्य आत्मवाद और अनित्य आत्मवाद तथा कूटस्थ आत्मवाद और परिणामी आत्मवाद के दोषों की विवेचना में न पड़कर हमें केवल यही देखना है कि महावीर ने इन विभिन्न आत्मवादों का किस रूप से समन्वय किया है नहीं है। (1 ) नित्यता आत्मा अपने अस्तित्व की दृष्टि से सदैव रहता है अर्थात् नित्य है । दूसरे शब्दों में आत्म तत्त्व रूप से नित्य है, शाश्वत है। -- -- ( 2 ) अनित्यता - आत्मा पर्याय की दृष्टि से अनित्य है । आत्मा के एक समय में जो पर्याय रहते हैं, वे दूसरे समय में नहीं रहते हैं। आत्मा की अनित्यता व्यावहारिक दृष्टि से है, बद्धात्मा में ही पर्याय परिवर्तन के कारण अनित्यता का गुण रहता है। स्वभाव की दृष्टि से आत्मा कर्ता या भोक्ता अथवा परिणमनशील महावीर के समकालीन विभिन्न आत्मवाद : 67 ( 3 ) कूटस्थता हैं- -- (4) परिणामीपन या कर्तृत्व सभी बद्धात्माएँ कर्मों की कर्त्ता और भोक्ता हैं । यह एक आकस्मिक गुण है, जो कर्म पुद्गलों के संयोग से उत्पन्न होता है । Jain Education International -- -- ( 5-6 ) सूक्ष्मता तथा विभुता आत्मा संकोच एवं विकासशील है । आत्म-प्रदेश धनीभूत होकर इतने सूक्ष्म हो जाते हैं कि आगमिक दृष्टि से एक सूचिकाग्रभाग पर असंख्य आत्मा सशरीर निवास करती हैं। तलवार की सूक्ष्म तीक्ष्ण धार भी सूक्ष्म एकेन्द्रिक जीवों के शरीर तक को नष्ट नहीं कर सकती। विभुता की दृष्टि से एक ही आत्मा के प्रदेश यदि प्रसारित हों तो समस्त लोक को व्याप्त कर सकते हैं। -- इस प्रकार हम देखते हैं कि महावीर का आत्मवाद तात्कालीन विभिन्न आत्मवादों का सुन्दर समन्वय है। यही नहीं वरन् यह समन्वय इस प्रकार प्रस्तुत किया गया है कि सभी प्रकार की आत्मवादी धारायें अपने-अपने दोषों से मुक्त हो-होकर आकार मिल जाती हैं। हेमचन्द्र इस समन्वय की औचित्यता को एक सुन्दर उदाहरण द्वारा प्रस्तुत करते For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001685
Book TitleSagar Jain Vidya Bharti Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages182
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy