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________________ पार्श्वनाथ विद्यापीठ के नए प्रकाशन : 171 पार्श्वनाथ शोधपीठ के निदेशक प्रो० सागरमल जैन का अध्ययन और लेखन क्षेत्र बहुत ही व्यापक रहा है। प्रो० जैन उन अग्रणी विद्वानों में से हैं जिनका जैन विद्या के लगभग सभी पक्षों पर समान अधिकार है। आपने विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं, शोध-पत्रिकाओं, अभिनन्दन ग्रन्थों, स्मृति-ग्रन्थों, संगोष्ठियों, सम्मेलनों के लिये और भूमिका के रूप में अभी तक लगभग कुल तीन हजार पृष्ठों की सामग्री लिखी है। जिसे दस खण्डों में प्रकाशित करने की योजना है। इस प्रथम खण्ड में १८ लेख संगृहित हैं। इस खण्ड के प्रारम्भ के ३३ पृष्ठों में प्रो० सागरमल जैन के व्यक्तित्व एवं कृतित्त्व का भी उल्लेख किया गया है। इस खण्ड में संगृहीत लेखों एवं निबन्धों का शीर्षक इस प्रकार है -- १. जैनधर्म-दर्शन का सारतत्व, २. भगवान महावीर का जीवन एवं दर्शन, ३. जैनधर्म में भक्ति की अवधारणा, ४. जैनधर्म में स्वाध्याय का अर्थ एवं स्थान, ५. जैनसाधना में ध्यान, ६. अर्धगामी आगम साहित्य में समाधिमरण की अवधारणा, ७. जैन कर्म सिद्धान्त - एक विश्लेषण, ८. भारतीय संस्कृति का समन्वित स्वरूप, ६. पर्यावरण के प्रदूषण की समस्या और जैनधर्म, १०. जैनधर्म और सामाजिक समता, ११. जैन आगमों में मूल्यात्मक शिक्षा और वर्तमान सन्दर्भ, १२. खजुराहो की कला और जैनाचार्यों की समन्वयात्मक एवं सहिष्णु दृष्टि, १३. महापण्डित राहुल सांकृत्यायन के जैनधर्म सम्बन्धी मन्तव्यों की समालोचना, १४. ऋग्वेद में अर्हत् और ऋषभवाची ऋचायें - एक अध्ययन, १५. नियुक्ति साहित्य : एक पुनर्चिन्तन, १६. जैन एवं बौद्ध पारिभाषिक शब्दों के अर्थ निर्धारण और अनुवाद की समस्या, १७. जैन आगमों में हुआ भाषिक स्वरूप परिवर्तन - एक विमर्श, १८. भगवान् महावीर की निर्वाणतिथि पर पुनर्विचार। पुस्तक - नेमिदूतम् लेखक - कवि विक्रम, हिन्दी अनुवाद - डॉ० धीरेन्द्र मिश्र प्रकाशक - पार्श्वनाथ शोधपीठ (ग्र० सं०६८) प्रथम संस्करण - १६६४, पृष्ठ - ४६+१३६, आकार – पेपर बैक डिमाई, मूल्य - ५० रु० मात्र । नेमिदूतम् की कथावस्तु २२वें तीर्थंकर नेमिनाथ तथा राजीमती से सम्बन्धित है, जिसमें नेमिनाथ द्वारा सांसारिक विषय-वासनाओं से विरक्त होकर परमपद की प्राप्ति हेतु योग-साधना में रामगिरि पर निवास करना है। नेमिनाथ के उक्त वृत्तान्त को जानकर राजीमती ( जिसका विवाह नेमिनाथ के साथ होना था ) उनका अनुगमन करती हुई रामगिरि पर जाकर नेमिनाथ से लौट आने के लिए बहुविध-प्रार्थना करती है, किन्तु वह नेमिनाथ को समझने में असफल हो जाती है। तत्पश्चात् Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001685
Book TitleSagar Jain Vidya Bharti Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages182
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size12 MB
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