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जैन धर्म का लेश्या-सिद्धान्त : एक विमर्श : 155
लेश्या सिद्धान्त और अन्य विचारणाएँ
भारत में व्यक्ति के मनोवृत्तियों, गुणों एवं कर्मों के आधार पर वर्गीकरण करने की परम्परा अत्यन्त प्राचीन है। यह वर्गीकरण सामाजिक एवं साधनात्मक दोनों दृष्टिकोणों से किया जाता रहा है। सामाजिक दृष्टि से इसने चातुर्वर्ण्य के सिद्धान्त का रूप ग्रहण किया था, जिसपर जन्मना आर कर्मणा दृष्टिकोणों को लेकर श्रमण और वैदिक परम्परा में काफी विवाद भी रहा है। साधनात्मक दृष्टिकोण से गुण कर्म के आधार पर व्यक्तित्व का वर्गीकरण करने का प्रयास न केवल जैन, बौद्ध और हिन्दू परम्परा ने किया है, वरन् अन्य लुप्त श्रमण परम्पराओं में भी ऐसे वर्गीकरण उपलब्ध होते हैं। दीघनिकाय में आजीवक सम्प्रदाय के आचार्य मंखलिपुत्र गोशालक एवं अंगुत्तरनिकाय में पूर्ण-कश्यप के नाम के साथ ही वर्गीकरण का निर्देश हुआ है। ज्ञातव्य है कि दीघनिकाय में सामंजफलसुत्त में गोशालक सम्बन्धी विवरण में मात्र "छस्वेवववाभिजातीसु" इतना उल्लेख है, जबकि अंगुत्तर निकाय में पूर्णकश्यप के द्वारा प्रस्तुत विवरण में इन छहों अभिजातियों में कौन किस वर्ग में आता है, इसका भी उल्लेख है। किन्तु इसमें आजीवक श्रमणों और आचार्यों को सर्वोच्च वर्गों में रखना यही सूचित करता है कि यह सिद्धान्त मूलतः आजीवकों अर्थात मंखलिगोशालक की परम्परा का रहा है। अंगुत्तरनिकाय में या तो भ्रान्तिवश अथवा फिर पूर्णकश्यप द्वारा भी मान्य होने के कारण इसे उनके नामों से कहा गया है। इसकी मान्यता के अनुसार कृष्ण, नील, लोहित, हरिद्र, शुक्ल और परमशुक्ल ये छ: अभिजातियाँ हैं। उक्त वर्गीकरण में कृष्ण अभिजाति में निर्गन्थ और आजीवक श्रमणों के अतिरिक्त अन्य श्रमणों को, लोहित अभिजाति में निर्गन्थ श्रमणों को, हरिद्र अभिजाति में आजीवक गृहस्थों को, शुक्ल अभिजात में आजीवक के प्रणेता आचार्य-वर्ग को रखा गया है। ज्ञातव्य है कि चतुर्थ वर्ग के अर्थ में पूज्य आचार्य देवेन्द्रमुनिजी ने अपने 'पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ में एवं कुमारी शान्ता जैन ने अपने शोध-प्रबन्ध में जो श्वेतवस्त्रधारी या निर्वस्त्र का अर्थ लिखा है वह उचित नहीं है उसमें मूलशब्द है -- "ओदात्तवसनी अचेलसावका" । इसका अर्थ है उदात्त वस्त्र वाले अचेलकों ( आजीवकों ) के श्रावक। इसमें अचेलसावका का अर्थ अचेलकों के श्रावक ऐसा है। ओदात्तवसना यह श्रावकों का विशेषण है।
उपर्युक्त वर्गीकरण का जैन विचारणा के लेश्या सिद्धान्त से बहुत कुछ शब्द साम्य है, लेकिन जैन दृष्टि से यह वर्गीकरण इस अर्थ में भिन्न है कि एक तो यह केवल मानव जाति तक सीमित है, जबकि जैन वर्गीकरण इसमें सम्पूर्ण प्राणी वर्ग का समावेश करता है। दूसरे, जैन दृष्टिकोण व्यक्तिपरक है, जो साम्प्रदायिकता से ऊपर उठकर कहता है कि प्रत्येक व्यक्ति या व्यक्ति समूह अपनी मनोवृत्तियों एवं कर्मों के आधार पर किसी भी वर्ग या अभिजाति में सम्मिलित हो सकता है। यहाँ यह विशेष रूप से द्रष्टव्य है कि जहाँ गोशालक द्वारा दुसरे श्रमणों को नील अभिजाति में रखा गया, वहाँ निर्गन्थों को लोहित अभिजाति में रखना उनके प्रति कुछ समादर भाव का द्योतक अवश्य है। सम्भव है कि महावीर एवं गोशालक का पूर्व सम्बन्ध ही इसका कारण रहा हो। जहाँ तक भगवान बुद्ध की तत्सम्बन्धी मान्यता का का प्रश्न है, वे पूर्णकश्यप अथवा गोशालक की मान्यता से अपने को सहमत नहीं कर पाते हैं। वे व्यक्ति के नैतिक स्तर के आधार पर वर्गीकरण तो प्रस्तुत करते हैं, लेकिन वे अपने वर्गीकरण को जैन
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