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________________ 154 : श्रमण / अप्रैल-जून/1995 अहंकार होता है । वह अपने दोषों को सदैव छिपाने की कोशिश करता है । उसका दृष्टिकोण अयथार्थ एवं व्यवहार अनार्य होता है। वह वचन से दूसरे की गुप्त बातों को प्रकट करने वाला अथवा दूसरे के रहस्यों को प्रकट करके उससे अपना हित साधने वाला, दूसरे के धन का अपहरण करने वाला एवं मात्सर्य भावों से युक्त होता है। फिर भी ऐसा व्यक्ति दूसरे का अहित तभी करता है, जब उससे उसकी स्वार्थ सिद्धि होती है। 12 4. तेजोलेश्या ( शुभ मनोवृत्ति ) से युक्त व्यक्तित्व के लक्षण यह मनोदशा पवित्र होती है। इस मनोभूमि में प्राणी पापभीरु होता है । यद्यपि वह अनैतिक आचरण की ओर प्रवृत्त नहीं होता, तथापि वह सुखापेक्षी होता है। लेकिन किसी अनैतिक आचरण द्वारा उन सुखों की प्राप्ति या अपना स्वार्थ साधन नहीं करता । धार्मिक और नैतिक आचरण में उसकी पूर्ण आस्था होती है। अतः उन कृत्यों के सम्पादन में आनन्द प्राप्त करता है, जो धार्मिक या नैतिक दृष्टि से शुभ हैं। इस मनोभूमि में दूसरे के कल्याण की भावना भी होती है। संक्षेप में, इस मनोभूमि में स्थित प्राणी पवित्र आचरण वाला, नम्र, धैर्यवान, निष्कपट, आकांक्षारहित, विनीत, संयमी एवं योगी होता है।13 वह प्रिय एवं दृढधर्मी तथा परहितैषी होता है। इस मनोभूमि में दूसरे का अहित तो सम्भव होता है, लेकिन केवल उसी स्थिति में जबकि दूसरा उसके हितों का हनन करने पर उतारू हो जाये । जैन आगमों में तेजोलेश्या की शक्ति को प्राप्त करने के लिये विशिष्ट साधना-विधि का उल्लेख भी प्राप्त होता है । गोशालक ने महावीर से तेजोलेश्या की जो साधना सीखी थी उसका दुरुपयोग उसने स्वयं भगवान् महावीर और उनके शिष्यों के प्रति किया । इस प्रकार तेजोलेश्या का उपयोग शुभत्व और अशुभत्व दोनों ही दिशा में सम्भव हो सकता है। ➖➖ 5. पद्म लेश्या ( शुभतर मनोवृत्ति ) से युक्त व्यक्तित्व के लक्षण इस मनोभूमि में पवित्रता की मात्रा पिछली भूमि की अपेक्षा अधिक होती है। इस मनोभूमि में क्रोध, मान, माया एवं लोभरूप अशुभ मनोवृत्तियाँ अतीव अल्प अर्थात् समाप्तप्राय हो जाती हैं । प्राणी संयमी तथा योगी होता है तथा योग साधना के फलस्वरूप आत्मजयी एवं प्रफुल्लित होता है। वह अल्पभाषी, उपशांत एवं जितेन्द्रिय होता है। 14 Jain Education International 6. शुक्ल लेश्या ( परमशुभ मनोवृत्ति ) से युक्त व्यक्तित्व के लक्षण यह मनोभूमि शुभ मनोवृत्ति की सर्वोच्च भूमिका है। पिछली मनोवृत्ति के सभी शुभ गुण इस अवस्था में वर्तमान रहते हैं, लेकिन उनकी विशुद्धि की मात्रा अधिक होती है । प्राणी उपशांत, जितेन्द्रिय एवं प्रसन्नचित्त होता है। उसके जीवन का व्यवहार इतना मृदु होता है कि वह अपने हित के लिए दूसरे को तनिक भी कष्ट नहीं देना चाहता है। मन-वचन-कर्म से एकरूप होता है तथा उनपर उसका पूर्ण नियन्त्रण होता है । उसे मात्र अपने आदर्श का बोध रहता है। बिना किसी अपेक्षा के वह मात्र स्वकर्तव्य के परिपालन के प्रति जागरूक रहता है। सदैव स्वधर्म एवं स्वस्वरूप में निमग्न रहता है। For Private & Personal Use Only ―― www.jainelibrary.org
SR No.001685
Book TitleSagar Jain Vidya Bharti Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages182
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size12 MB
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