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122 : श्रमण/ अप्रैल-जून/1995
धम्मपद, 1/7-8 62. उत्तराध्ययनसूत्र, 32/100
उत्तराध्ययनसूत्र, 32/101 64. गीता, 3/34
गीता, 3/6 66. गीता, 2/59 67. उत्तराध्ययनसूत्र, 32/109 68. गीता, 2/64 69. मणो साहसिओ भीमो दुट्ठसो परिधावई। -- उत्तराध्ययन 23/58 70. रम्भ समारम्भे आरम्भे य तहेव य।
मणं पवत्तमाणं तु नियत्तिज्ज जयं जई।। -- उत्तराध्ययन 24/11 71. गीता, 6/34 72. गीता, 6/35 73. मनःसंयम्य मच्चित्तो युक्त आसीत मत्परः । -- गीता 6/14 74. धम्मपद, चित्तवर्ग, 33-35 |
योगशास्त्र (हेमचन्द्र), 36-39 76. प्रकृति यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति। -- गीता 3/33
सर्वास्या एवं राजर्षि ! भूतजातैर्जगत्त्रये। देवादेवारपि देहोयं व्यात्मैव स्वभावतः । अज्ञमस्त्वथ तज्ज्ञ वा यावत्स्वान्तं शरीरकर्म ।। -- योगवासिष्ठ 105/109 तथा तथा प्रवर्तेत यथा न क्षुभ्यते मनः । संक्षुब्धे चित्तरत्ने तु सिद्धि:व कदाचन।।
प्रज्ञोपायविनिश्चय, 5/40 ( उद्धृत बोधिचर्यावतार, भूमिका ), पृ0 20 79. बोधिचर्यावतार, भूमिका, पृ0 20 80. विशेष जानकारी के लिये देखिये -- गुणस्थानारोहण । 81. योगशास्त्र 12/33-36
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