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120 : श्रमण / अप्रैल-जून/1995
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विशद विवेचना के लिए देखिए अनुवाद)
गीता, 15/9
सद्दे-रूवे य गन्धे य, रसे - फासे तहेव य ।
पंचवि कामगुण, निच्चसो परिवज्जए ।। उत्तराध्ययन, 16/10
जाणतो पस्तो ईहापुव्वं ण होई केवलिणो । वाणी तम्हा ते सोऽबन्धगो भणिदो ।। परिणाम पुव्ववयणं जीवस्स य बंधकरणं होई । परिणामरहिय वयणं तम्हा णाणीस्स णहि बन्धो ।। हापुव्वं वयणं जीवस्स य बंधकारणं होई । ईहारहियं वसणं तम्हा णाणीस्स ण हि बन्धो । । ठाणणिसेज्जविहारा ईहापुव्वं ण होई केवलिणो । म्हाण होई बन्धो साकट्टं मोहसणीयस्स ।।
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- नियमसार, 171, 172, 173, 174 टिप्पणी ईहा शब्द विमर्शात्मक संकल्प की अपेक्षा अधिक निकट है।
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गणधरवाद
वायुभूति से चर्चा
आचारांग अभिधानराजेन्द्र, खण्ड 2, पृ0 575
परांचि खानि व्यतृणत्स्वयंभू स्तस्मात्पराड्पश्यति नान्तरात्मन् कठ0 2/1/1 सव्वे सुहसाया दुक्खपडिकूला इन्द्रिय मनोनुकूलायाम्प्रवृत्तो लाभस्यार्थस्याभिलाषातिरेके वही, पृ0 575 रागस्सहेउ समणुन्नमाहु दोसस्संहेउं अमणुन्नमाहु तुलना कीजिये : राग की उत्पत्ति के दो हेतु हैं 2. अनुचित विचार । द्वेष की उत्पत्ति के दो हेतु 2. अनुचित विचार ।
विशुद्धिमग्गो, भाग 2, पृ० 103-128 (हिन्दी
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उत्तरा० 32/23
1. शुभ (अनुकूल ) करके देखना, -- 1. प्रतिकूल करके देखना तथा
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- अंगुत्तर निकाय, दूसरा निपात 11/6-7
तओ से जायंति पओयणाइं निमज्जिउं मोहमहण्णवम्मि । सुसिणो दुक्खविणोयणट्ठा तप्पच्चयं उज्जमए य रागी ।। कोहं च माणं च तव मायं लोहं दुगच्छं अरइं रडं च । हा भयं योग पुमित्थवेयं नपुंसवेयं विविहे य भावे ।। आवज्जई एयमणेगस्वे एवंविहे कामगुणेसु सत्तो । अन्ने य एयप्पभवे विसेसे कारुण्णदीणे हिरिमं वइस्से । ।
• विमर्शरहित "वासना" के
उत्तराध्ययन, 32 / 105, 102, 103
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