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________________ 120 : श्रमण / अप्रैल-जून/1995 20. 22222 21. 23. 24. 25. 26. 27. 28. 29. 30. विशद विवेचना के लिए देखिए अनुवाद) गीता, 15/9 सद्दे-रूवे य गन्धे य, रसे - फासे तहेव य । पंचवि कामगुण, निच्चसो परिवज्जए ।। उत्तराध्ययन, 16/10 जाणतो पस्तो ईहापुव्वं ण होई केवलिणो । वाणी तम्हा ते सोऽबन्धगो भणिदो ।। परिणाम पुव्ववयणं जीवस्स य बंधकरणं होई । परिणामरहिय वयणं तम्हा णाणीस्स णहि बन्धो ।। हापुव्वं वयणं जीवस्स य बंधकारणं होई । ईहारहियं वसणं तम्हा णाणीस्स ण हि बन्धो । । ठाणणिसेज्जविहारा ईहापुव्वं ण होई केवलिणो । म्हाण होई बन्धो साकट्टं मोहसणीयस्स ।। -- - नियमसार, 171, 172, 173, 174 टिप्पणी ईहा शब्द विमर्शात्मक संकल्प की अपेक्षा अधिक निकट है। - —— Jain Education International गणधरवाद वायुभूति से चर्चा आचारांग अभिधानराजेन्द्र, खण्ड 2, पृ0 575 परांचि खानि व्यतृणत्स्वयंभू स्तस्मात्पराड्पश्यति नान्तरात्मन् कठ0 2/1/1 सव्वे सुहसाया दुक्खपडिकूला इन्द्रिय मनोनुकूलायाम्प्रवृत्तो लाभस्यार्थस्याभिलाषातिरेके वही, पृ0 575 रागस्सहेउ समणुन्नमाहु दोसस्संहेउं अमणुन्नमाहु तुलना कीजिये : राग की उत्पत्ति के दो हेतु हैं 2. अनुचित विचार । द्वेष की उत्पत्ति के दो हेतु 2. अनुचित विचार । विशुद्धिमग्गो, भाग 2, पृ० 103-128 (हिन्दी -- -- -- उत्तरा० 32/23 1. शुभ (अनुकूल ) करके देखना, -- 1. प्रतिकूल करके देखना तथा - - अंगुत्तर निकाय, दूसरा निपात 11/6-7 तओ से जायंति पओयणाइं निमज्जिउं मोहमहण्णवम्मि । सुसिणो दुक्खविणोयणट्ठा तप्पच्चयं उज्जमए य रागी ।। कोहं च माणं च तव मायं लोहं दुगच्छं अरइं रडं च । हा भयं योग पुमित्थवेयं नपुंसवेयं विविहे य भावे ।। आवज्जई एयमणेगस्वे एवंविहे कामगुणेसु सत्तो । अन्ने य एयप्पभवे विसेसे कारुण्णदीणे हिरिमं वइस्से । । • विमर्शरहित "वासना" के उत्तराध्ययन, 32 / 105, 102, 103 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001685
Book TitleSagar Jain Vidya Bharti Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages182
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size12 MB
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