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प्रो. सागरमल जैन
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विषय-भोगों में उलझा हुआ आत्मा बहिरात्मा है। संसार के विषय-भोगों में उदासीन साधक अन्तरात्मा है और जिसने अपनी विषय-वासनाओं पर विजय प्राप्त कर लिया है, जो विषय-विकार से रहित अनन्त चतुष्टय से युक्त होकर ज्ञाता - द्रष्टा भाव में स्थित है, वह परमात्मा है ।
आत्मा और परमात्मा के पारस्परिक सम्बन्ध को लेकर कहा गया है-
'अप्पा सो परमप्पा' ।
आत्मा ही परमात्मा है ।
प्रत्येक प्राणी, प्रत्येक चेतनसत्ता परमात्म स्वरूप है
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मोह और ममता के कोहरे में हमारा वह परमात्म स्वरूप छुप गया है। जैसे बादलों के आवरण में सूर्य का प्रकाशपुंज छिप जाता है और अन्धकार घिर जाता है, उसी प्रकार मोह-ममता और राग-द्वे रूपी आवरण से आत्मा का अनन्त आनन्द स्वरूप तिरोहित हो जाता है और जीव दुःख और पीड़ा से भर जाता है।
आत्मा और परमात्मा में स्वरूपतः कोई भेद नहीं है। धान और चावल एक ही है, अन्तर मात्र इतना है कि एक आवरण सहित है और दूसरा निरावरण । इसी प्रकार आत्मा और परमात्मा एक ही है, फर्क केवल कर्म रूप आवरण का है।
जिस प्रकार धान के सुमधुर भात का आस्वादन तभी प्राप्त हो सकता है जब उसका छिलका उतार दिया जावे, उसी प्रकार अपने ही परमात्म स्वरूप की अनुभूति तभी सम्भव है, जब हम अपनी चेतना से मोह-ममता और राग-द्वेष की खोल को उतार फेकें । छिलके सहित धान के समान मोह-ममता की खोल में जकड़ी हुई चेतना बद्धात्मा है और छिलके-रहित शुद्ध शुभ्र चावल के रूप में निरावरण शुद्ध चेतना परमात्मा है। कहा है
सिद्धा जैसो जीव है, जीव सोय सिद्ध होय । कर्म मैल का आंतरा, बूझे बिरला कोय ।।
मोह - ममता रूपी परदे को हटाकर उस पार रहे हुए अपने ही परमात्म स्वरूप का दर्शन सम्भव है। हमें प्रयत्न परमात्मा को पाने का नहीं, इस परदे को हटाने का करना है, परमात्मा तो उपस्थित है ही । हमारी गलती यही है कि हम परमात्मस्वरूप को प्राप्त करना तो चाहते हैं, किन्तु इस आवरण को हटाने का प्रयास नहीं करते। हमारे प्रयत्नों की दिशा यदि सही हो तो अपने में ही निहित परमात्मा का दर्शन दूर नहीं है। हमारा दुर्भाग्य तो यही है कि आज स्वामी ही दास बना हुआ है । हमें अपनी हस्ती का अहसास ही नहीं है। किसी उर्दू शायर ने ठीक ही कहा है
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इन्सा की बदती अंदाज से बाहर है. 1 कमबख्त खुदा होकर बंदा नजर आता है ।।
जैनधर्म में परमात्मा की अवधारणा एक आदर्श पुरुष के रूप में की गयी है। परमात्मा
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