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________________ प्रो. सागरमल जैन जब तक चित्त में पुराने कर्म- मल उपस्थित हैं तब तक आध्यात्मिक विशुद्धि संम्भव ला। इसके लिए जैनधर्म में निर्जरा की बात कही गयी है। निर्जरा का अर्थ है कर्म-मल को अलग कर देना या झाड देना। आत्मा पर लगे कर्म- मल को अलग करने का प्रयत्न ही निर्जरा है। जिस प्रकार कमरे की सफाई के लिए यह आवश्यक है कि पहले तो हम कमरे की खिड़कियाँ बन्द कर दें ताकि बाहर से धूल न आये, किन्तु पूर्व की उपस्थित धूल या मल की सफाई के लिए कमरे को झाडना भी आवश्यक होता है। उसी प्रकार आत्मा में जो गंदगी है उसे दूर करने के लिए निर्जरा आवश्यक है। जैनधर्म के अनुसार निर्जरा के द्वारा ही आत्मा के पूर्व संचित कर्म- मल का शोधन संम्भव है। निर्जरा का दूसरा नाम 'तप-साधना' है। कहा गया है कि तप के द्वारा आत्मा करोड़ों भवों के पूर्व संचित कर्मों को नष्ट कर देता है। जिस प्रकार शद्ध घी को प्राप्त करने के लिए हमें मक्खन को किसी बर्तन में रखकर तपाना खन को किसी बर्तन में रखकर तपाना होता है, उसी प्रकार आत्मा की शुद्धि के लिये उसे भी शरीर रूपी भाजन के झरा तपाना होता है। जैनधर्म में तपस्या का मतलब शरीर को कष्ट देना नहीं अपितु शरीर के प्रति रागात्मकता या ममत्व बुद्धि को दूर करना है। इसीलिये आत्मा की देहासक्ति को तोड़ने का जो प्रयत्न है वही तपस्या है। यह सत्य है कि सभी दुराचरणों का मूल कारण व्यक्ति की ममता या आसक्ति है, इस आसक्ति में भी देहासक्ति सबसे घनीभूत होती है। इसे समाप्त करने के लिए ही जैनधर्म में अनशन आदि बाह्य तपों और स्वाध्याय आदि आन्तरिक तपों का विवेचन किया गया है। जब तपस्या द्वारा आत्मा की आसक्ति और कर्ममल समाप्त हो जाता है तो आत्मा की अनन्त ज्ञान आदि क्षमताएँ प्रकट हो जाती है। आसक्ति और कर्म- मल का क्षय होकर आध्यात्मिक शक्तियों का पूर्ण प्रकटन ही जैनधर्म में मुक्ति या निर्वाण है। इसे ही परमात्मदशा की प्राप्ति भी कहते हैं। जब आत्मा कर्म-मल से रहित होकर पूर्ण निर्ममत्व और निरावरण अवस्था को प्राप्त कर लेता है और अपने आत्म स्वरूप में लीन हो जाता है, तो वही परमात्मा बन जाता है। आत्मा को परमात्मा की अवस्था तक पहुँचाना ही जैन साधना का मूल प्रयोजन आत्मा और परमात्मा आत्मा की विभावदशा अर्थात् उसकी विषय-वासनाओं में आसक्ति या रागभाव ही उसका बन्धन है, अपने इस रागभाव, आसक्ति या ममता को तोड़ने का जो प्रयास है, वह साधना है और उस आसक्ति, ममत्व या रागभाव का टूट जाना ही मुक्ति है, यही आत्मा का परमात्मा बन जाना है। जैन साधकों ने आत्मा की तीन अवस्थाएँ मानी हैं -- १. बहिरात्मा २. अन्तरात्मा और ३. परमात्मा। सन्त आनन्दघन जी कहते हैं -- त्रिविध सकल तनुधर गत आतमा, बहिरातम अध रूप सुज्ञानी। बीजो अन्तर आतमा तीसरो परमातम अविच्छेद सुज्ञानी।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001684
Book TitleSagar Jain Vidya Bharti Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1994
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size19 MB
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