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________________ 222 नियुक्ति साहित्य : एक पुनर्चिन्तन 1. आवश्यकनियुक्ति एवं आवश्यकचूर्णि के उल्लेखों के अनुसार आर्यरक्षित भद्रगुप्त के निर्यापक (समाधिमरण कराने वाले) माने गये। आवश्यकनियुक्ति न केवल आर्यरक्षित की विस्तार से चर्चा करती है, अपितु उनका आदरपूर्वक स्मरण भी करती है। भद्रगुप्त आर्यरक्षित से दीक्षा में ज्येष्ठ हैं,ऐसी स्थिति में उनके द्वारा रचित नियुक्तियों में आर्यरक्षित का उल्लेख इतने विस्तार से एवं इतने आदरपूर्वक नहीं आना चाहिए। यद्यपि परवर्ती उल्लेख एकमत से यह मानते हैं कि आर्यभद्रगुप्त की निर्यापना आर्यरक्षित ने करवायी, किन्तु मूल गाथा को देखने पर इस मान्यता के बारे में किसी को सन्देह भी हो सकता है, मूल गाथा निम्नानुसार है -- "निज्जवण भदगुत्ते वीसुं पढणं च तस्स पुव्वगयं । पव्वाविओ य भाया रक्खिअखमणेहिं जणओ अ"।। - आवश्यकनियुक्ति, 776 यहाँ "निज्जवण भद्दगुत्ते" में यदि "भदगुत्ते" को आर्ष प्रयोग मानकर कोई प्रथमाविभक्ति में समझें तो इस गाथा के प्रथम दो चरणों का अर्थ इस प्रकार भी हो सकता है-- भद्रगुप्त ने आर्यरक्षित की निर्यापना की और उनसे समस्त पूर्वगत साहित्य का अध्ययन किया। गाथा के उपरोक्त अर्थ को स्वीकार करने पर तो यह माना जा सकता है कि नियुक्तियों में आर्यरक्षित का जो बहुमान पूर्वक उल्लेख है, वह अप्रासंगिक नहीं है। क्योंकि जिस व्यक्ति ने आर्यरक्षित की निर्यापना करवायी हो और जिनसे पूर्वो का अध्ययन किया वह उनका अपनी कृति में सम्मानपूर्वक उल्लेख करेगा ही। किन्तु गाथा का इस दृष्टि से किया गया अर्थ चूर्णि में प्रस्तुत कथानकों के साथ एवं नियुक्ति गाथाओं के पूर्वापर प्रसंग को देखते हुए किसी भी प्रकार संगत नहीं माना जा सकता है। चूर्णि में तो यही कहा गया है कि आर्यरक्षित ने भद्रगुप्त की निर्यापना करवायी और आर्यवज़ से पूर्वसाहित्य का अध्ययन किया। यहाँ दूसरे चरण में प्रयुक्त "तस्स" शब्द का सम्बन्ध आर्य वज़ से है,जिनका उल्लेख पूर्व गाथाओं में किया गया है। साथ ही यहाँ भद्दगुत्ते' में सप्तमी का प्रयोग है,जो एक कार्य को समाप्त कर दूसरा कार्य प्रारम्भ करने की स्थिति में किया जाता है। यहाँ सम्पूर्ण गाथा का अर्थ इस प्रकार होगा -- आर्यरक्षित ने भद्रगुप्त की निर्यापना (समाधिमरण) करवाने के पश्चात् (आर्यवज से) पूर्वो का समस्त अध्ययन किया है और अपने भाई और पिता को दीक्षित किया। यदि आर्यरक्षित भद्रगुप्त के निर्यापक हैं और वे ही नियुक्तियों के कर्ता भी हैं, तो फिर नियुक्तियों में आर्यरक्षित द्वारा उनका निर्यापन (समाधिमरण) करवाने के बाद किये गये कार्यों का उल्लेख नहीं होना था। किन्तु ऐसा उल्लेख है, अतः नियुक्तियाँ काश्यपगोत्रीय भद्रगुप्त की कृति नहीं हो सकती हैं। 2. दूसरी एक कठिनाई यह भी है कि कल्पसूत्र स्थविरावली के अनुसार आर्यरक्षित आर्यवज से 8वीं पीढी में आते हैं। अतः यह कैसे सम्भव हो सकता है कि 8वीं पीढी में होने वाला व्यक्ति अपने से आठ पीढ़ी पूर्व के आर्यवज्र से पूर्वो का अध्ययन करे। इससे कल्पसूत्र स्थविरावली में दिये गये क्रम में संदेह होता है, हालाँकि कल्पसूत्र स्थविरावली एवं अन्य स्रोतों से इतना तो निश्चित होता है कि आर्यभद्र आर्यरक्षित से पूर्व में हुए हैं। उसके अनुसार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001684
Book TitleSagar Jain Vidya Bharti Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1994
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size19 MB
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