________________
प्रो. सागरमल जैन
2. पुनः आचार्य भद्रगुप्त को उत्तर - भारत की अचेल परम्परा का पूर्वपुरुष दो-तीन आधारों पर माना जा सकता है। प्रथम तो कल्पसूत्र की पट्टावली के अनुसार आर्यभद्रगुप्त आर्यशिवभूति के शिष्य हैं और ये शिवभूति वही हैं जिनका आर्यकृष्ण से मुनि की उपाधि (वस्त्र - पात्र ) के प्रश्न पर विवाद हुआ था और जिन्होंने अचेलता का पक्ष लिया था । कल्पसूत्र स्थविरावली में आर्य कृष्ण और आर्यभद्र दोनों को आर्य शिवभूति का शिष्य कहा है। चूँकि आर्यभद्र ही ऐसे व्यक्ति हैं -- जिन्हें आर्यवज्र एवं आर्यरक्षित के शिक्षक के रूप में श्वेताम्बरों में और शिवभूति के शिष्य के रूप में यापनीय परम्परा में मान्यता मिली हैं। पुनः आर्यशिवभूति के शिष्य होने के कारण आर्यभद्र भी अचेलता के पक्षधर होगें और इसलिए उनकी कृतियाँ यापनीय परम्परा में मान्य रही होंगी।
3. विदिशा से जो एक अभिलेख प्राप्त हुआ है उसमें भद्रान्वय एवं आर्यकुल का
उल्लेख है
221
--
शमदमवान चीकरत् [ ।।] आचार्य - भद्रान्वयभूषणस्य शिष्यो ह्यसावार्य्यकुलोदगतस्य [1] आचार्य गोश
(जै. शि. सं. 3. पृ. 57 )
-
सम्भावना यही है कि भद्रान्वय एवं आर्यकुल का विकास इन्हीं आर्य भद्र से हुआ हो । यहाँ के अन्य अभिलेखों में मुनि का 'पाणितलभोजी' ऐसा विशेषण होने से यह माना जा सकता है यह केन्द्र अचेल धारा का था । अपने पूर्वज आचार्य भद्र की कृतियाँ होने के कारण निर्युक्तियाँ यापनीयों में भी मान्य रही होगीं । ओघनियुक्ति या पिण्डनियुक्ति में भी जो कि परवर्ती एवं विकसित हैं, दो चार प्रसंगों के अतिरिक्त कहीं भी वस्त्र - पात्र का विशेष उल्लेख नहीं मिलता है । यह इस तथ्य का भी सूचक है कि नियुक्तियों के काल तक वस्त्र - पात्र आदि का समर्थन उस रूप में नहीं किया जाता था, जिस रूप में परवर्ती श्वेताम्बर सम्प्रदाय में हुआ । वस्त्र - पात्र के सम्बन्ध में नियुक्ति की मान्यता भगवती आराधना एवं मूलाचार से अधिक दूर नहीं है। आचारांगनिर्युक्ति में आचारांग के वस्त्रैषणा अध्ययन की नियुक्ति केवल एक गाथा में समाप्त हो गयी है और पात्रैषणा पर कोई निर्युक्ति गाथा ही नहीं है। अतः वस्त्र - पात्र के सम्बन्ध में नियुक्तियों के कर्त्ता आर्य भद्र की स्थिति भी मथुरा के साधु-साध्वियों के अंकन से अधिक भिन्न नहीं है। अतः नियुक्तिकार के रूप में आर्य भद्रगुप्त को स्वीकार करने में नियुक्तियों में वस्त्र - पात्र के उल्लेख अधिक बाधक नहीं हैं ।
Jain Education International
4. चूँकि आर्यभद्र के निर्यापक आर्यरक्षित माने जाते हैं । नियुक्ति और चूर्णि दोनों से ही यह सिद्ध है आर्यरक्षित भी अचेलता के ही पक्षधर थे और उन्होंने अपने पिता को, जो प्रारम्भ में अचेल दीक्षा ग्रहण करना नहीं चाहते थे, योजनापूर्वक अचेल बना ही दिया था। चूर्णि में जो कटीपट्टक की बात है, वह तो श्वेताम्बर पक्ष की पुष्टि हेतु डाली गयी प्रतीत होती है ।
भद्रगुप्त को नियुक्ति का कर्त्ता मानने के सम्बन्ध में निम्न कठिनाइयाँ हैं :
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org