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खजुराहो की कला
भारतीय संस्कृति की उस युग की मुख्य धारा से उनका विरोध भी नहीं रहा। उन्होंने अपने वीतरागता एवं निवृत्ति के आदर्श को सुरक्षित रखते हुए भी हिन्दू देव मण्डल के अनेक देवी-देवताओं को, उनकी उपासना पद्धति और कर्मकाण्ड को, यहाँ तक कि तन्त्र को भी अपनी परम्परा के अनुरूप रूपान्तरित करके स्वीकृत कर लिया। मात्र यही नहीं हिन्दू समाज व्यवस्था के वर्णाश्रम सिद्धान्त और उनकी संस्कार पद्धति का भी जैनीकरण करके उन्हें आत्मसात् कर लिया। साथ ही अपनी ओर से सहिष्णुता और सद्भाव का परिचय देकर अपने को नाम शेष होने से बचा लिया। हम प्रस्तुत आलेख में खजुराहो के मन्दिर एवं मूर्तिकला के प्रकाश में इन्हीं तथ्यों को स्पष्ट करने का प्रयास करेंगे।
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खजुराहो के हिन्दू और जैन परम्परा के मन्दिरों का निर्माण समकालीन है, यह इस तथ्य का द्योतक है कि दोनों परम्पराओं में किसी सीमा तक सद्भाव और सह-अस्तित्व की भावना थी । किन्तु जैन मन्दिर समूह का हिन्दू मन्दिर समूह से पर्याप्त दूरी पर होना, इस तथ्य का सूचक है कि जैन मन्दिरों के लिए स्थल- चयन में जैनाचार्यों ने बुद्धिमत्ता और दूर- दृष्टि का परिचय दिया, ताकि संघर्ष की स्थिति को टाला जा सके। ज्ञातव्य है कि खजुराहो का जैन मन्दिर समूह हिन्दू मन्दिर समूह से लगभग 2 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यह सत्य है कि मन्दिर निर्माण में दोनों परम्पराओं में एक सात्विक प्रतिस्पर्धा की भावना भी रही तभी तो दोनों परम्पराओं में कला के उत्कृष्ट नमूने साकार हो सके, किन्तु जैनाचार्य इस सम्बन्ध में सजग थे कि संघर्ष का कोई अवसर नहीं दिया जाये क्योंकि जहाँ हिन्दू मन्दिरों का निर्माण राज्याश्रय से हो रहा था, वहाँ जैन मन्दिरों का निर्माण वणिक् वर्ग कर रहा था । अतः इतनी सजगता आवश्यक थी कि राजकीय कोष एवं बहुजन समाज के संघर्ष के अवसर अल्पतम हों और यह तभी सम्भव था जब दोनों के निर्माणस्थल पर्याप्त दूरी पर स्थित हों ।
मन्दिर एवं मूर्तिकला की दृष्टि से दोनों परम्पराओं के मन्दिरों में पर्याप्त समानता है किन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि जैनों ने अपनी परम्परा के वैशिष्ट्य की पूर्ण उपेक्षा की है। समन्वयशीलता के प्रयत्नों के बावजूद उन्होंने अपने वैशिष्ट्य और अस्मिता को खोया नहीं है । खजुराहो के मन्दिर जिस काल में निर्मित हुए तब वाममार्ग और तन्त्र का पूरा प्रभाव था । यही कारण है कि खजुराहो के मन्दिरों में कामुक अंकन पूरी स्वतन्त्रता के साथ प्रदर्शित किये गये, प्राकृतिक और अप्राकृतिक मैथुन के अनेक दृश्य खजुराहो के मन्दिरों में उत्कीर्ण हैं । यद्यपि जैन मन्दिरों की बाह्य भित्तियों पर भी ऐसे कुछ अंकन हैं, किन्तु उनकी मात्रा हिन्दू मन्दिरों की अपेक्षा अत्यल्प है। इसका अर्थ है कि जैनधर्मानुयायी इस सम्बन्ध में पर्याप्त सजग रहे होंगे कि कामवासना का यह उद्दाम अंकन उनके निवृत्तिमार्गी दृष्टिकोण के साथ संगति नहीं रखता है इसलिए उन्होंने ऐसे दृश्यों के अंकन की खुली छूट नहीं दी । खजुराहो के जैन मन्दिरों में कामुकता के अश्लील अंकन के जो दो-चार फलक मिलते हैं उनके सम्बन्ध में दो ही विकल्प हो सकते हैं या तो वे जैनाचार्यों की दृष्टि से ओझल रहे या फिर उन्हें उस तान्त्रिक मान्यता के आधार पर स्वीकार कर लिया गया कि ऐसे अंकनों के होने पर मन्दिर पर बिजली नहीं गिरती है और वह सुरक्षित रहता है। क्योंकि खजुराहो के अतिरिक्त दक्षिण के कुछ दिगम्बर जैन
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