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अर्धमागधी आगमसाहित्य में समाधिमरण
आतुरप्रत्याख्यान में पंच मंगल के पश्चात् अरिहंत आदि से क्षमा याचना और उत्तम अर्थ अर्थात् समाधिमरण की आराधना के लिए 18 पाप स्थानों का और शरीर के संरक्षण का परित्याग तथा अन्त में सागार एवं निरागार समाधि मरण के प्रत्याख्यान की चर्चा है। इसके अन्त में संसार के सभी प्राणियों से क्षमा याचना के सन्दर्भ में 13 गाथाएँ हैं और अन्त में एकत्व भावना का उल्लेख है। जिसमें कहा गया है कि "ज्ञान-दर्शन से युक्त एक मेरा आत्मा ही शाश्वत है, शेष सभी बाह्य पदार्थ सांयोगिक हैं। सांयोगिक पदार्थों के प्रति ममत्व ही दुःख परम्परा का कारण है। अतः त्रिविध रूप से संयोग का परित्याग कर देना चाहिए" । ज्ञातव्य है कि ये गाथाएँ भगवतीआराधना एवं मूलाचार के साथ-साथ कुंद-कुंद के ग्रन्थों में भी यथावत रूप में उपलब्ध होती है। आतुरप्रत्याख्यान नामक दूसरे ग्रन्थ में अविरति का प्रत्याख्यान, ममत्व त्याग, देव के प्रति उपालम्भ, शुभ भावना, अरहंत आदि का स्मरण आदि समाधिमरण के अंगों की चर्चा है। इसी नाम के तृतीय प्रकीर्णक 71 गाथाएँ हैं। इसमें मुख्य रूप से बाल-पण्डित मरण और पण्डित मरण ऐसे दो प्रकार के समाधिमरणों की चर्चा करता है। इसमें प्रथम 4 गाथाओं में देशव्रती श्रावक के लिये बाल-पण्डित मरण का विधान है जबकि मुनि के लिए पण्डित मरण का विधान है। इसमें उत्तम अर्थ समाधि मरण की प्राप्ति के लिए किस प्रकार के ध्यानों (विचारों) की आवश्यकता है, इसकी चर्चायें है। इसके पश्चात् सब पापों के प्रत्याख्यान के साथ आत्मा की एकत्व की अनुभूति की चर्चा भी है। अन्त में आलोचनादायक और आलोचना ग्राहक के गुणों की चर्चा करते हुए तीन प्रकार के मरणों की चर्चा की गई है -- बाल-मरण, बाल-पण्डितमरण, पण्डितमरण। इसके पश्चात् असमाधिमरण के फल की चर्चा की गयी है
और फिर यह बताया गया है कि बालमरण और पण्डित मरण क्या है ? शस्त्र ग्रहण, विष-भक्षण, जल-प्रवेश, अग्नि-प्रवेश आदि द्वारा मृत्यु को प्राप्त करना बालमरण है तथा इसके विपरीत अनशन द्वारा देहासक्ति का त्याग कर कषायों को क्षीण करना पण्डित मरण है। अन्त में पण्डितमरण की भावनाएँ और उसकी विधि की चर्चा है।
महाप्रत्याख्यान नामक प्रकीर्णक में 142 गाथाएँ हैं। इसमें बाह्य एवं अभ्यान्तर परिग्रह का परित्याग, सर्वजीवों से क्षमा याचना, आत्मालोचन, ममत्व का छेदन, आत्मस्वरूप का ध्यान, मूल एवं उत्तर गुणों की आराधना, एकत्व भावना, संयोग सम्बन्धों के परित्याग आदि की चर्चा करते हुए आलोचक के स्वरूप का भी विवरण दिया गया है। इसी प्रसंग में पाँच महाव्रतों एवं समिति-गुप्ति के स्वरूप की चर्चा भी है। साथ ही तप के महत्त्व को बताया गया है। फिर अकृत-योग एवं कृतयोग की चर्चा करके पण्डित-मरण की प्ररूपणा की गयी है। इसी प्रसंग में ज्ञान की प्रधानता का भी चित्रण हुआ है। अन्त में संसारतरण एवं कर्मों से विस्तार पाने का उपदेश देते हुए आराधना रूपी पताका को फहराने का निर्देश है। साथ ही पाँच प्रकार की आराधना व उनके फलों की चर्चा करते हुए धीरमरण (समाधिमरण) की प्रशंसा की गयी है।
संस्तारक प्रकीर्णक का विषय भी समाधिमरण ही है। इस प्रकीर्णक में 122 गाथाएँ हैं। प्रारम्भ में मंगल के साथ-साथ कुछ श्रेष्ठ वस्तुओं और सद्गुणों की चर्चा है। इसमें कहा गया है कि समाधिमरण परमार्थ, परम-आयतन, परमकल्प और परमगति का साधक है। जिस
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