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________________ डॉ. सागरमल जैन OU आतुरप्रत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान, संस्तारक, भक्त परिज्ञा और मरण विभक्ति प्रमुख हैं। चन्द्रवेध्यक प्रकीर्णक का अन्तिम लक्ष्य तो समाधिमरण का निरूपण ही है, किन्तु उसकी पूर्व भूमिका के रूप में विनय गुण, आचार्य गुण, विनय निग्रह गुण, ज्ञान गुण और चरण गुण द्वार नामक प्रथम पांच द्वारों में समाधिमरण की पूर्व भूमिका के रूप में सम्बन्धित विषयों का विवरण दिया गया है और अन्त में छठां समाधिमरण द्वार है। इस प्रकीर्णक में 175 गाथाएँ हैं, किन्तु कुछ प्रतियों में 75 गाथाएँ और भी मिलती हैं किन्तु उनमें से अधिकांश गाथायें आतुरप्रत्याख्यान में यथावत उपलब्ध होती हैं। ग्रन्थ के अन्त में मरण गण द्वार नामक सप्तम द्वार में सबसे अधिक 58 गाथाएँ है। इसमें अकृतयोग और कृतयोग के माध्यम से यह बताया गया है कि जो व्यक्ति विषय-वासनाओं के वशीभूत होकर जीवन जीता है, वह अकृत योग है तथा जो इसके विपरीत वासनाओं एवं कषायों पर नियन्त्रण कर जीवन जीता है वह कृतयोगी है और जो कृतयोगी है, उसी का मरण सार्थक है या समाधिमरण है। इसमें किस प्रकार की जीवन दृष्टि व आचार-विचार का पालन करते हुए व्यक्ति समाधिमरण को प्राप्त कर सकता है, इसका विस्तृत विवेचन है। इसमें कहा गया है कि जो सम्यक्त्व से युक्त लब्धबुद्धि साधक आलोचना करके मरण को प्राप्त होता है उसका मरण शुद्ध होता है इसके विपरीत जो इन्द्रिय सुखों की ओर दौड़ता है वह अकृत परिक्रम जीव आराधना काल में विचलित हो जाता है। जिस प्रकार लक्ष्य भेद का साधक अपना ध्यान बाह्य विषयों की ओर न लगाकर केवल लक्ष्य की ओर रखता है, उसी प्रकार जो व्यक्ति राग-द्वेष का निग्रह करता है तथा त्रिदण्ड और चार कषायों से अपनी आत्मा को लिप्त नहीं होने देता। पांचों इन्द्रियों पर नियन्त्रण रखता है। छह जीव निकाय की हिंसा एवं सात भयों से रहित मार्दव भाव से युक्त होता है। आठ मदों से रहित होकर नव प्रकार से ब्रह्मचर्य का पालन करता है तथा दस धर्म का पालन करते हुए शुक्ल ध्यान के अभिमुख होता है वही व्यक्ति मरण काल में कृत योगी होता है। जो व्यक्ति जिन उपदृष्ट समाधिमरण की आराधना करता है वह धूत क्लेश होकर भावशल्यों का निवारण करके शुद्ध अवस्था को प्राप्त होता है। जिस प्रकार सुकुशल वैद्य भी अपनी व्याधि को अन्य से कहकर उसकी चिकित्सा करवाता है, उसी प्रकार साधु भी गुरू के समीप अपने दोषों की आलोचना करके मृत्यु के समय शुद्ध अवस्था को प्राप्त होता है। जो साधु मरणकाल में आसक्त नहीं होता, वही आराधक है। इस प्रकार चन्द्रवेध्यक मुख्य रूप से समाधिमरण करने वाले साधक की जीवन दृष्टि कैसी होना चाहिए, इसकी चर्चा करता है। चन्द्रवेध्यक के पश्चात् जो प्रकीर्णक ग्रन्थ पूर्णतः समाधि समाधिमरण की अवधारणा को ही अपना विषय बनाते हैं, उनमें आतुरप्रत्याख्यान और महाप्रत्याख्यान प्रमुख हैं। ज्ञातव्य है कि आतुरप्रत्याख्यान और महाप्रत्याख्यान की लगभग एक सौ गाथाएँ मूलाचार के संक्षिप्त प्रत्याख्यान और बृहत् प्रत्याख्यान नामक अध्यायों में उपलब्ध होती हैं। 'आतुरप्रत्याख्यान के नाम से तीन प्रकीर्णक ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं। एक आतुरप्रत्याख्यान में तीस गाथाएँ और कुछ गद्य भाग हैं, जबकि दूसरे में 34 गाथाएँ हैं और तीसरे में 71 गाथाएँ हैं। वैसे इन सभी आतुरप्रत्याख्यान नामक प्रकीर्णकों का विषय समाधिमरण ही है। प्रथम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001684
Book TitleSagar Jain Vidya Bharti Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1994
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size19 MB
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