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अध्याय।]
सुबोधिनी टीका। V उत्पादस्थितिभङ्गाः पर्यायाणां भवन्ति किल न सतः ।
ते पर्याया द्रव्यं तस्माद्रव्यं हि तत्रितयम् ॥ २००॥
अर्थ-उत्पाद, स्थिति, भङ्ग, ये तीनों ही पर्यायोंके होते हैं, पदार्थके नहीं होते, और उन पर्यायोंका समूह ही द्रव्य कहलाता है । इस लिये वे तीनों मिल कर द्रव्य कहलाते हैं।
भावार्थ-यदि उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य पदार्थके माने जावे तो पदार्थका ही नाश और उत्पाद होने लगेगा, परन्तु यह पहले कहा जा चुका है, कि न तो किसी पदार्थका नाश होता है, और न किसी पदार्थकी नवीन उत्पत्ति ही होती है इसलिये यह तीनों पदार्थकी अवस्थाओंके भेद हैं, और वे अवस्थाएं मिलकर ही द्रव्य कहलाती हैं, इस लिये तीनोंका ममुदाय ही द्रव्यका पूर्ण स्वरूप है।
उत्पादका स्वरूपतत्रोत्पादोऽवस्था प्रत्यग्रं परिणतस्य तस्य सतः।
सदसद्भावनिवन्द्वं तदतद्भावत्ववन्नयादेशात् ॥ २०१ ॥
अर्थ-उन तीनों में परिणमन शील क्रयकी नवीन अवस्थाको उत्पाद कहते हैं। यह उत्पाद भी द्रत्यार्थिक और पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षासे सत् और अमत् भावसे विशिष्ट है।
परका स्वरूप--- अपि च व्ययोपि न सतां व्ययोप्यवस्थाव्ययः सतस्तस्य । प्रध्वंसाभावः सच परिणामित्वातसतोप्यवश्यं स्यात् ॥ २०२॥
अर्थ-तथा व्यय भी पदार्थका नहीं होता है, किन्तु उसी परिणमन शील द्रव्यकी अवस्थाका व्यय होता है। इसीको प्रवंसाभाव कहते हैं । यह प्रध्वंसाभाव परिणमनशील द्रव्यके अवश्य होता है। * पयोव्रतो न दध्यत्ति न पयोत्ति दधिनतः । अगोरसवतो नोभे तस्मात्तत्त्वं त्रयात्मकम् । १॥
अष्टसहस्त्री जिसके दूध पीनेका व्रत है वह दही नहीं खाता है, जिसके दही खानेका व्रत है वह दूध नहीं पीता है, जिसके अगोरस व्रत है वह दूध दही, दोनोंको नहीं ग्रहण करता है । इसलिये तत्व त्रयात्मक है।
+ नैयायिकोंने जिस प्रकार तुच्छाभावको स्वतन्त्र पदार्थ माना है उस प्रकार जैन सिदान्त अभावको स्वतन्त्र-तुच्छरूप नहीं मानता। जैन मतमें वर्तमान समय सम्बन्धी पर्यायका वर्तमान समयसे पहले अभावको प्रागमाव कहते हैं। तथा उसीके वर्तमान समयसे पीछे अभावको प्रध्वंसाभाव कहते हैं । द्रव्यकी एक पर्यायके सजातीय अन्य पर्याय, अभावको अन्योन्याभाव कहते हैं। और उसीके विजातीय पर्यायमें अभावको अत्यन्ताभाव कहते हैं । यह चारों प्रकारका ही अभाव पर्यायरूप है।
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