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________________ अध्याय ।। सुबोधिनी टीका। किन्त्वस्ति च कोपि गुणोऽनिर्वचनीयः स्वतः सिद्धः । नाना चाऽगुरुलघुरिति गुरुलक्ष्यः स्वानुभूतिलक्ष्यो वा ॥ १९२॥ अर्थ-किन्तु उन गुणोंमें एक अगुरुलघु नामक गुण है, वह वचनोंके अगम्य है, स्वतः सिद्ध है, उसका ज्ञान गुरु ( सर्वज्ञ अथवा आचार्य ) के उपदेशसे होता है अथवा स्वानुभूतिप्रत्यक्षसे होता है। भावार्थ-अगुरुलघु गुण हरएक पदार्थम जुदार रहता है, इसके निमित्तसे किसी भी शक्तिका कभी भी नाश नहीं होता है । जो शक्ति जिस स्वरूपको लिये हुए है, वह सदा उसी स्वरूपमें रहती है, इसलिये ज्ञान गुणमें तरतमता होनेपर भी उसके अंशोंका विनाश नहीं होता है। शङ्काकार ननु चैवं सत्यदुत्पादादिद्वयं न संभवति । अपि नोपादानं किल करणं न फलं तदनन्यात् ॥ १९३ ॥ अपिच गुणः स्वांशानामपकर्षे दुर्बलः कथं न स्यात् । उत्कर्षे बलवानिति दोषोऽयं दुर्जयो महानिति चेत् ॥ १९४ ॥ अर्थ-" किसी शक्तिका कभी नाश भी नहीं होता है और न नवीन कुछ उत्पत्ति ही होती है। यदि ऐसा माना जाने तो गुणोंमें उत्पाद, व्यय, प्रौव्य नहीं बट सकते हैं , और न कोई किसीका कारण ही बन सकता है, न फल ही कुछ हो सक्ता है, क्योंकि उपर्युक्त कथनसे तुम गुणोंको सदा नित्य ही मान चुके हो। दूसरी बात यह है कि हरएक गुणके अंशोंकी कभी न्यूनता भी प्रतीत होती है ऐसी अवस्थामें गुण दुर्बल ( सूक्ष्म-पतला ) क्यों नहीं हो जाता ? और कभी गुणमें अधिकता भी प्रतीत होती है, ऐसी अवस्थामें वह बलबान ( सशक्त-मोटा ) क्यों नहीं हो जाता ? यह एक महान् दोष है । इसका निराकरण कुछ कठिन है ? उत्तरतन्न यतः परिणामि द्रव्यं पूर्व निरूपितं सम्यक् । ___ उत्पादादित्रयमपि सुघटं नित्येऽथ नाप्यनित्येर्थे ॥ १९५ ॥ अर्थ-उपर्युक्त जो शंका की गई है वह निर्मूल (ठीक नहीं) है क्योंकि यह पहले अच्छी तरह कहा जा चुका है कि द्रव्य परिणमन शील है, इसलिये नित्य पदार्थमें ही उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य अच्छी तरह घटते हैं, अनित्य पदार्थमें नहीं घटते । दृष्टान्त-- जाम्बूनद यथा सति जायन्ते कुण्डलादयो भावाः । अथ सत्स्तु तेषु नियमादुत्पादादित्रयं भवत्येव ॥ १९३ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001681
Book TitlePanchadhyayi Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakashan Karyalay Indore
Publication Year
Total Pages246
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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