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________________ ६० ] पश्चाध्यायी। [प्रथम 33333334 क्षेत्रान्तर रूप हो गया है । क्षेत्रसे क्षेत्रान्तर ग्रहण करनेकी अपेक्षासे ही आत्माके प्रदेशोंकी हानि वृद्धि समझी जाती है । वास्तवमें उसमें किसी प्रकारकी हानि अथवा वृद्धि नहीं होती है। __ दूसरा दृष्टान्तयदि वा प्रदीपरोचिर्यथा प्रमाणादवस्थितं चापि । अतिरिक्तं न्यूनं वा गृहभाजनविशेषतोऽवगाहाच ॥ १८८ ॥ अर्थ-अथवा दूसरा दृष्टान्त दीपकका है। दीपककी किरणें उतनी ही हैं जितनी कि वे हैं, परन्तु उनमें अधिकता और न्यूनता जो आती है, वह केवल घर आदि आवरककी विशेषतासे आती है और अवगाहनकी विशेषतासे भी आती है। भावार्थ---दीपकको जैसा भी छोटा बड़ा आवरक (जिसमें दीपक रक्खा हो वह पात्र) मिलेगा दीपकका प्रकाश उसी क्षेत्रमें पर्याप्त रहेगा। गुणोंके अवगाहनमें दृष्टान्त-- अंशानामवगाहे दृष्टान्तः स्वांशसंस्थितं ज्ञानम् । अतिरिक्तं न्यूनं वा ज्ञेयाकृति तन्मयान्न तु स्वांशैः ॥१८९॥ अर्थ-अंशोंके अवगाहन में यह दृष्टान्त है कि ज्ञान-गुण जितना भी है वह अपने अंशों (अविभाग प्रतिच्छेदों) में स्थित है। वह जो कभी कमती कभी बढ़ती होता है, वह केवल ज्ञेय पदार्थका आकार धारण करनेसे होता है। जितना बड़ा ज्ञेय है, उतना ही बड़ा ज्ञानका आकार हो जाता है । वास्तवमें ज्ञान गुणके अंशोंमें न्यूनाधिकता नहीं होती। दृष्टान्त तदिदं यथा हि संविद्धटं परिच्छिन्ददिहैव घटमात्रम् । यदि वा सर्व लोकं स्वयमवगच्छच्च लोकमात्रं स्यात् ॥१९०॥ अर्थ-दृष्टान्त इस प्रकार है कि जिस समय ज्ञान घटको जान रहा है, उस समय वह घट मात्र है, अथवा जिस समय वह सम्पूर्ण लोकको स्वयं जान रहा है, उस समय वह लोक मात्र है। भावार्थ-घटको जानते हुए समग्र ज्ञान घटाकारमें ही परिणत होकर उतना ही हो जाता है, और समग्र लोकको जानते हुए वह लोक प्रमाण हो जाता है। वास्तवमें वह घटता बढ़ता नहीं हैंन घटाकारेपि चितः शेषांशानां निरन्वयो नाशः। लोकाकारेपि चितः नियतांशानां न चाऽसदुत्पत्तिः ॥ १९१ ॥ अर्थ-घटाकार होने पर ज्ञानके शेष अंशोंका सर्नथा नाश नहीं होता है और लोकाकार होनेपर नियमित अंशोंके अतिरिक्त उसके नवीन अंशोंकी उत्पत्ति भी नहीं होती है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001681
Book TitlePanchadhyayi Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakashan Karyalay Indore
Publication Year
Total Pages246
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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