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________________ - vvvvAAAAAA vv अध्याय । सुबोधिनी टीका। [ ४३ न हि पुनरेकेषामिह भवति गुणानां निरन्वयो नाशः। अपरेषामुत्पादो द्रव्यं यत्तदयाघारम् ॥ १२१ ॥ अर्थ-ऐसा ही है कि किन्हीं गुणों तो सर्वथा नाश होता जाता है और दूसरे नवीन गुणोंकी उत्पत्ति होती जाती है तथा उन उत्पन्न और नष्ट होनेवाले गुणोंका आधार द्रव्य है। ___ दृष्टान्ताऽऽभ.सदृष्टान्ताभासोऽयं साडि विपक्षस्य मृत्तिकायां हि । एके नश्यन्ति गुणा जायन्ते पाकजा गुणास्त्वन्ये ॥ १२२ ॥ ___अर्थ-विपक्षका यह दृष्टान्त भी ठीक नहीं है कि मिट्टी में पहले गुण तो नष्ट होजाते हैं और पाकसे होनेवाले दूसरे गुण पैदा होनाते हैं । यह केवल दृष्टान्ताभास है। भावार्थ---नैयायिक दर्शनका सिद्धान्त है कि जिस समय कच्चा घड़ा अग्नि (अवा) में दिया जाता है उसरामय उस घड़ेके पहले सभी गुण ष्ट होजाते हैं । घड़ेका पाक होनेसे उसमें दूभरे ही नवीन गुण पैदा होनाते हैं। इतना ही नहीं, *दैशेषिकोंका तो यहां तक भी सिद्धान्त है कि अग्निमें जब घड़ेकी पाकावस्था होती है तव काला घड़ा बिलकुल फूट जाता है। उसके सब परमाणु अग २ विवर जाते हैं। फिर शीघ्र ही रक्त रूप पैदा होता है और पाकन परमाणु इकट्ठे होते हैं। उनसे कपाल बनते हैं। उन कपालोंसे लाल घड़ा बनता है । इस कार्य में ( घड़ेके फूटने और बनने में ) जो समय लगता है वह अति सूक्ष्म है इसलिये जाना नहीं जाता । इस नैयायिक सिद्धान्तके दृष्टान्तको देकर गुणोंका नाश और उत्पत्ति मानना सर्वथा मिथ्या है । यह दृष्टान्त सर्वथा बाधित है। यह बात किसी विवेकशालीकी बुद्धिमें नहीं आसक्ती है कि अग्निमें घड़ेके गुणोंका नाश होजाता हो अथवा वह घड़ा ही अग्निमें फूटकर फिर झटपट अपने आप तयार हो जाता हो, इसलिये उक्त नैयायिकोंका सिद्धान्त सर्वथा बाधित है । इस दृष्टान्तसे गुणोंका नाश और उत्पत्ति मानना भी मिथ्या है। इसी चातको ग्रन्थकार स्वयं प्रगट करते हैं। तत्रोत्तरमिति सम्यक् सत्यां तत्र च तथाविधायां हि किं पृथिवीत्वं नष्टं न नष्टमथ चेत्तथा कथं न स्यात् ॥ १२३ ॥ - झूठे दृष्टान्तका दृष्टान्ताभास कहते हैं। * वैशेषिके नये पीलुपाक वादिमते तत्रहि पाकाथमपक्कघटो यदा महामहानसे निधीयते तदा तदन्तः प्रविष्टाभिगवदमिज्वालामालाभिरवयविभागेन पूर्वावयवसंयोगे विनष्टेऽसमबाथिकारणनाशात् भावकार्यनाश इति नियमात् श्यामघटे विनष्ट पुनः परमाणुषु रक्तरूपोत्पत्या त्यणुकादिक्रमण रक्तघटोत्पत्तिरिति । नैयायिकानां पिठरपाकवादिनामत्र गौरवः । सिद्धान्तमुक्तावली ( नैयायिक-वैशेषिकग्रन्थ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001681
Book TitlePanchadhyayi Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakashan Karyalay Indore
Publication Year
Total Pages246
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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